SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५१ प्रथम पत्र “अपयानुप्रेक्षा" १ अपयानुप्रेक्षा-संसारमें परिभ्रमण करते हुये जीवको मिथ्यात्व २ अवृत, ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग यह अनंत विटंबना देने वाले है. १ श्री वीतराग दिशा निजात्मके अनुभवमें जो विप्रीत रुची उसमें अभीनिवेश (अग्रह) उत्पन्न करनेवाला तथा बाह्य वि. षय में, पर सम्बन्धी शुद्ध आत्म तत्व से लगाके, संपूर्ण द्रव्योंमें जो विप्रीत अग्रह करे, सो मिथ्यात्व. २ अभ्यंतर मे आत्म प्रमात्मा के स्वरूपकी भावनासे उ. त्पन्न हुवा, जो परम सुख रूप अमृत समान भोजन प्रासन करनेकी रुची होए उसे पलटावे. तथा बाह्य विषय में वृतादी धारन नहीं करने रूप जो प्रवृत्ती सो अवृत. ३ अभ्यंतर में प्रमाद रहित जो शुद्ध आत्मा है उसके अनुभवसे चलाने रूप जो प्रणती, तथा बाह्य विषय मे जो मूल और उत्तर गुणमे अतीचार उत्पन्न करने वाला जो है, सो प्रमाद ४ अभ्यंतर मे परम उपशम मूर्ती केवल ज्ञानादी अनंत गुण स्वभावसेही धारन करने वाला, निजात्म परमात्मके स्वरूपको क्षोभ के करने वाले, तथा बाह्यमें विषयके सम्बन्धसे क्र रता आदी आवेश रूप जो क्रोधादी है, सो कषाय.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy