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________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३३ न) भगवंतने फरमाये सो कहते है. १ विवक्त निवृत्ती भाव, २ विउत्सर्ग-सर्व सङ्ग परित्याग, ३ अवस्थित स्थिरी भूत, और ४ अमोह-मोह ममत्व रहित. प्रथम पत्र "विवक्त' - विवक्त शुक्लध्यानीका सदा यह विचार रहता है गाथा-एगो में सासउ अप्पा, नाण दसण संजउ . सेसामें बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लरकणा अर्थ-मै एक हूं. मेरा दूसरा कोई नहीं है. मैं दूसरे किसीका नहीं हूं. अर्थात मुजे किसीभी द्रव्यने उत्पन्न नहीं किया. जीव द्रव्य अनादी अनंत है. इस को उत्पन्न करनेकी या नाश करनेकी शक्ती, किसी भी अन्य द्रव्यमें नहीं है. तैसेही यह कधी उत्पन्नभी नहीं हुवा, क्यों कि अनादी है. और कधी नाश भी नहीं होनेका, क्यों कि अवीन्यासी और अनंत हूं. इस लियेही कहा है की “सासउ अप्पा” अर्थात् आत्मा शाश्वती हैं, जो उपजाता है, उसका नाशभी होता है, आत्मा उत्पन्न नहीं हुइ, इसी लिये इस का नाश भी नहीं है. आत्म शाश्वती है. आत्मा-असंग है. अभंग है, अरंग है, सदा एकही चैतन्यता गुणमें रमण कर्ता है. पर सङ्ग की इसे कुछ जरूरही नहीं है. आ
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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