SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ V ध्यानकल्पतरू. अलंकृत, सुशोभित कर, मनहर रूप बणानेकी. इत्यादि तरह २ के काम भोगों भोगवने की. जो मोह कर्मके उदयसे अभिलाषा होतीहैं. तथा वरोक्त पदार्थोंकी प्राप्ती हुइ हैं. उसका उप भोग लेते, जो अंतः करणमें, सुख, अहलाद उत्पन्न होता है; की मैं कैसे इच्छित सुखका भुक्ता हूं. या उनकी वारम्वार अनुमोदन करने से, अहा ! वगैरे स्वभाविक उद्गार निकलते, अंतःकरणमें आनंद का अनुभव करते, जो विचार होताहैं, उसे तत्वज्ञनें आर्त ध्यानका दूसरा प्रकार कहाहैं. ॥ पाठांतर || किल्लेक आर्त ध्यानका दूसरा प्रकार " इष्ट वियोग ” कहतेहैं, अर्थात् कालज्ञानादी ग्रंथमें, बताये हुये, स्वरादी लक्षणोंसे; या जोतिबादी विद्याके प्रभावले सरीरका वियोग स्वल्प ( थोडे ) कालमें होता जाण, विचार उत्पन्न होय, की - हायरे अब में ये सुंदर शरीर, प्यारे कुटुंब स्नेहीयों, और कष्टसे उपार्जन की हुइ लक्ष्मीका, त्याग कर चले जाऊंगा ! तथा अपने सहाय्यक स्वजन, मित्रोंके वियोग से मूर्छित होगिर पडे.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy