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________________ ३०६ ध्यानकल्पतरू. और क्या यह अपुर्वं वैराग्यदिशा. निकामी अक्रोधी. आमानी, अमायी, अलोभी, अरागी, अद्वेषी, निर्वीकारी,निअंहकारी महा दयाल, महा मयाल, महङ्गल, म हा रक्षपाल, असरण सरण, अतरण तरण, भव दुःख वारण, जन्म सुधारण, जक्त उधारण, अत्य, अतु ल्य शक्तीके धारक, त्रिदुःख वारक, अक्षोभ, अनंत, नेत्र युक्त, पर्म निर्यामक, पर्म वैद्य, पर्म गारूडी, पर्म ज्योती, पर्म झाज, पर्मशांत, पर्म कांत, पर्म दांत पर्म महंत, पर्म इष्ट, पर्म मिष्ठ, पर्म जेष्ठ, पर्म श्रेष्ट, पर्म पंडित, धर्म मंडित, मिथ्या खंडित, पर्म उपयोगी, अत्म गुण भोगी, पर्म योगी, महा त्यागी, महा वैरागी, अचिंत्य, अगम्य, महारम्य, अनंत दानलब्धी लाभल ब्धी, भोग लब्धी, उपभोगलब्धी, और बलवीर्यलब्धी के धरण हार, क्षयिक सम्यक्त्व' यथा ख्यात चारित्र, कैवल ज्ञान, केवल दर्शण, युक्त अष्टादश (१८) दोष रहित, चौतीस अतिशय, पैंतीस वाणी गुण सहित, पर्म शुक्ल लेशी, पर्म सुक्लध्यानी, अद्वैवत भावी, परम कल्याण रूप, परम शांत रूप, परम पवित्र, विचित्र, दाता-भुक्ता, सर्वज्ञ सर्व दर्शी, सिद्ध, बुद्ध, हितै षी, महाऋषी, निरामय, (निरोग) महाचन्द्र, महासू. र्य, महा सागर, योगिंद्र, मुनिंद्र, देवाधिदेव, अचल,
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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