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________________ २८० ध्यानकल्पतरू. २३ ज्ञानीको आत्म साधन सिवाय अन्य कामकी फुरसतही नहीं मिलती... ____२४ परमानन्द आत्मामें ही है. बाहिर क्या ढुं ढते हो! . २५ इच्छा है सोही संसार है, इच्छा त्यागसे संसार सहज छटता है. . ... २६ जैसे पहरे हुये वस्त्र जीर्ण होते, बेरंगी होते या नष्ट होते सरीर जीर्ण, बेरंगी, और नष्ट नहीं होता है, तैसेही सरीर और जीव जानो. . २७ अज्ञानी, मंद बुद्धीके कारणसे पर वस्तुमें मजा मानते हैं, और ज्ञानी भ्रम नष्ट होनेसे अन्तर आत्मा मेंही अनन्द मानते हैं. २८ स्थिर स्वभावीज मोक्ष पाते हैं, स्थिरता ही सम्यग दर्शनकी ऋद्धी. हैं, २९ लोकीक प्रेमसे वचनालाप, . बचना लापसे चित्त विभ्रम चित विमृम से विकलता विकलतासे चं चलता यों एक से एक दुर्गुणोकी बृधी जान, लोकीक प्रेम छोड,लोकोत्रसे लगावे. ३० जब ज्ञान होता है; तब जक्त बावला (गहले) सा दिखता है. और जब ध्यान होता है, तब वस्तुका यथार्थ स्वभाव भाषने लगता है उससे जैसा
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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