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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २०३ और अहिंशा सत्य दत, ब्रम्हचार्य अममत्व यह पंच महावृत धारन किये, इत्ने गुणके धारक होवें सोही, सत्य, शुद्ध, यथा तथ्य, श्री वितराग प्रणित धर्म फर. मा सक्ते है, वो कैसा धर्म फरमायंगे, तो की प्रतिपूर्ण न्युन्याधिकता रहित. देशवृत्ती (श्रावकका .) या सर्ववृति (साधूका) निरुपम औपमा रहित वैसा धर्म अन्य कोई भी प्रकाश नहीं शक्ते है, ऐसे गुणज्ञोंके पाससे ज्ञाम संपादन करना. अन्न, धन, आदी सामान्य वस्तुभी दातारके पाससे ग्रहण करतें अनेक लनुता करते है. तथा सरो वरमे से भी विना नमन किये पाणी प्राप्त नहीं हो सक्ता है. तो ज्ञान जैसा अत्युत्तम पदार्थ विना लघुता नम्रता किये कहांसे प्राप्त होगा. इस लिये, ज्ञान प्राप्त करनेकी श्री उत्तराध्ययनजीके पहले अध्यायमें यह रीती फरमाइ है:गाथा आसण गउन पुच्छेज्जा,नेव सिज्जागउ कयाइवि आगमुकुडु उ संतो, पुच्छेज्जा पंज्जलि उडो २२ एवं विणय जुत्तस्स सुत्त अत्थंच तदुभयं पुछ माणस्स सीसरस वागरेज्जं जहा सुये २३ अर्थात्-अपने आसण (विछोन) पे बेठा हुवा तथा सेजामें सूता हुवा कदापि प्रश्नादिक नहीं पूछे
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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