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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १४७ अरत्य, भय, शोक, दुगछा यह उमरावो सपरिवार सज हो चले. . चैतन्यकी आज्ञा ले विवेक चन्द्र धर्म सभामें अपने सर्व मंडलिक और सामंत सुभटोंकी सभा कर कहने लगे. भाइयों! अपना बहुतला काम फते होगया. और जो कुछ रहा है. वो थोडेमेही पार पडनेकी आशा है. परन्तु मुप्त एलची द्वारा खबर मिली है की उपशम किल्लेमें मोहने गुप्त सुभटो बेठा रखे हैं. इस लिये किसीभी लालचर्सेललया, उस किल्लेमें कोइभी प्रवेश मत करना. रस्ते के सर्व उपसर्ग अडगपणे सहे, क्षिण कषाय कि में प्रवेश करें की, जिससे मोहका एक क्षिणमें प्राजय कर, इच्छित काम फते हो. यह विवेक का बौध सर्दने सहर्ष बधा लिया. और तुर्त स जहो क्षिणमोह किल्लेकी तर्फ भयाण किया. रस्ते में 'लोभचन्द्र' मिल गये. और मधुरतासे कहने लगे, अब क्यों भगते हो, हमारा सत्यानाश तो तुमनें मिलादिया. अब सब तुमाराही हैं, डरो मत! यह 'उपशरद कसाय' विल्ला तुमाराही हैं. इसमें बे फिकर रहो. मोह रायतो बेचारे चुपचाप बैठे हैं. अब तुम्हारा नामही नहीं लवेगे. इन सब दगोसे विवेक ने अव्वलही वाकेफ
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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