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________________ ध्यानकल्पतरू. मध्य (बिचला) उर्ध (उंचा) तीनही लोक. भूत(गया) भविष्य (होनेवाला) और वृतमान (बर्ते सो) इन तीनही कालमें, जीव और पुगलकी अनंतानंत पर्यायोंका, जो परावृतन (पलटा) हो रहा है, उनका प्रकाश किया. तबही अपन उनके हुकमसें जगत् के चराचर (चल स्थिर) पदार्थोके कौविद (जाण) हुये हैं. और अगोचर (बिन देखे) पदार्थोंके गुण और पर्याय इले सुक्ष्म-अग्राही है की अपन तो क्या, परन्तु बडे २ चार ज्ञानके धारी, द्वादशांग के पाठी, महा मुनीवरों केही ग्रहाज (लक्ष) में आने मुशकिल होते है. जो पदार्थ अपने समजमें नहीं आते है, तो भी उन्हें अपन शास्त्रादीमें पढके सत्य मानते हैं. यह निश्चय अपनकों श्री तीर्थेश्वर भगवानकी आज्ञाके मानने सेही हुवा है; क्यों कि अपन निश्चयसे समजते हैं कि श्री वितराग देव राग द्वेष रहित हैं, उन्हे किसीकाभी पक्ष नहीं हैं, की वो कधी अन्यथा (झूट) बोले. श्री सर्वज्ञ प्रभूनें कैवल्य ज्ञानमें जैसा देखा वैसा फरमाया, वो सर्व सत्य हैं. श्री जिनेश्रर भगवाननें जो जो फरमाया है उसमेका कुछ आवश्यकिय ज्ञान ह्यां श्लोक करके कहते
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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