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________________ 乐 乐乐 乐乐 乐 55 h5 5 55 55 5 55分 55 एकेनाकर्षन्ती शूथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थानमिव गोपी॥ (पुरुषार्थसिद्धयुपाय- 225) सारांश यह है एक ग्वालन दूध से मक्खन निकालने "की प्रक्रिया में लगी है। वह दूध बिलौते हुए एक हाथ आगे लेक "जाती है, फिर दूसरा पीछे लाती है। इस प्रकार, दोनों हाथों को म क्रमशः आगे-पीछे लाने की प्रक्रिया चलती रहती है। रस्सी काक एक छोर आगे आता है तो दूसरा छोर पीछे हो जाता है, फिर वही है छोर आगे आ जाता है। दोनों ही छोर ग्वालिन के हाथों में रहते है हैं। उक्त क्रमिक प्रक्रिया से ग्वालिन को मक्खन की प्राप्ति होती है है। यदि वह ग्वालिन रस्सी के एक ही छोर को पकड़े रखे तो है मक्खन कभी नहीं निकल पाएगा। ॐ इसी तरह, किसी वस्तु के एक धर्म को प्रमुखता ।। ॐ देते हुए दूसरे विरोधी धर्म को गौण रूप में स्वीकारना, और ॐ पुनः उसी गौण धर्म को प्रमुखता देते हुए प्रमुख धर्म को गौण #रूप में रखना- इस प्रकार दोनों ही धर्मों को क्रमशः प्रमुखता देना- यह एक प्रक्रिया है जिससे नवनीत रूप वस्तु-स्वरूप 'सत्य' की उपलब्धि हो पाती है। दुराग्रहपूर्वक एक ही बात * (कथन) को सही समझने और दूसरे को नकारने से सत्य*दर्शन बाधित ही होगा। भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त-दृष्टि का अनुयायी व्यक्ति वस्तु-सम्बन्धी दो विरोधी विचारों को एक ही .. सत्य के दो अंगों के रूप में मानता है और तटस्थ होकर समन्वित व समग्र वस्तु-स्वरूप को- उसके सत्य को जानने-देखने का प्रयास करता है। 5555555555555555555 55 55도 + क +
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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