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________________ (2) हरन्ति दोषजातानि नरमिन्द्रियकिंकरम्। __(महाभारत, 13/51/16) ___- जो व्यक्ति इन्द्रियों का दास (वशीभूत) है, उसे दोष (विकार) अपनी ओर खींच लेते हैं (दोषग्रस्त कर लेते हैं)। (इन्द्रिय-गोपन) (3) यथा संहरते चायं, कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता- 2/158) - कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को सर्वथा सिमिटा लेता है, उसी प्रकार अपने आपको इन्द्रिय-विषयों से जो हटा लेता है, उसी की प्रज्ञा बुद्धि-ज्ञान वास्तव में उत्तम है। (4) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अझप्पेण समाहरे। - (सूत्रकृतांगसूत्र-1/8/16) - जिस प्रकार कछुआ अपना अहित होता देखकर अपने अंगों को अपनी ही देह में समेट लेता है, उसी प्रकार विद्वान् (मुनि) ज्ञानपूर्वक अपनी आत्मा को पाप से बचाता रहे। - (5) जहा पोमंजले जायं नोवलिप्पइवारिणा। एवं अलित्तो कामेहि... ___ (उत्तराध्ययन सूत्र-25/27) - जिस प्रकार जल में कमल निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार, श्रेष्ठ व्यक्ति (ब्राह्मण) काम-भोगों से निर्लिप्त रहता है।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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