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________________ (2) सर्वभूतेषु वर्तितव्यं यथाऽऽत्मनि। ___(महाभारत, 12/167/9) -सभी प्राणियों से आत्म-तुल्य व्यवहार करे। (3) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥ (गीता-6/32) -अर्जुन! परम योगी वह है, जो सर्वत्र आत्मोपम-समता का दर्शन करता है और सुख व दुःख को भी समान भाव से देखता है। (4) समयाए समणो होइ। (उत्तराध्ययन सूत्र-25/32) - समता का आचरण करने से ही श्रमण होता है। (5) समत्वं योग उच्यते। (गीता-2/48) -समत्व (समता) ही योग (आध्यात्मिक उच्च स्थिति) है। (6) लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो जिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ॥ __(उत्तराध्ययन सूत्र-19/91) -- साधु वह है जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवनमृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और सम्मान-अपमान में समभाव रखे। जैन धर्म एव वैदिक धर्म की सारततिक एकता/418
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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