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________________ (16) सञ्चिनोत्यशुभं कर्म, कलत्रापेक्षया नरः। एक: क्लेशानवाप्नोति, परत्रेह च मानवः॥ (महाभारत- 12/171/25) - मनुष्य स्त्री, पुत्र आदि कुटुम्बी जनों के लिए पाप-कर्मों का संचय करता है, किन्तु इस लोक में और परलोक में उसे अकेले ही उन (पापकर्मों) का फल भोगना पड़ता है। (17) जीवेणसयंकडेदुक्खं वेदेइन परकडे। (भगवती सूत्र- 1/2) - जीव अपना ही किया हुआ दुःख भोगता है, दूसरे का किया हुआ नहीं। (18) दुक्खे केण कडे?अन्तकडे, केण?पमायेण। (भगवती सूत्र- 17/5) - दुःख किसने किया? आत्मा ने किया। किस तरह किया? प्रमाद से किया। (19) आत्मानमेव मन्यन्ते कर्तारं सुख-दुःखयोः। (चरक संहिता) - सुख और दुःख को अपना किया हुआ ही समझें। (20) सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति। दुचिण्णा कम्मा दुच्चिणफला भवंति ॥ (दशाश्रुत स्कन्ध-6) - अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं और बुरे कर्मों के बुरे फल। तीय खण्ड:411
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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