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________________ पुत्र-पुत्र तु (सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) भारतीय संस्कृति में 'पिता' को पूज्य व आदरणीय माना जाता है। वैदिक ऋषि का वचन है- आत्मा पितुस्तनूर्वासः (ऋग्वेद-8/3/ 24), अर्थात् पुत्र पिता की आत्मा है और आश्रयदाता भी। महाभारत में पिता के महनीय स्थान का इस प्रकार निरूपण किया गया है- पिता वै गार्हपत्योऽग्निः (महाभारत- 12/108/7), अर्थात् पिता गार्हपत्य अग्नि है। घर में खाना पकाने की जो अग्नि होती है, उसे गार्हपत्य अग्नि कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है, इस अग्नि के बिना भोजन बनना ही सम्भव नहीं है। जिस प्रकार यह अग्नि परिवार के सदस्यों के जीवन-भरण का साधन है, उसी प्रकार पिता भी अपनी सन्ततियों के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने का प्रमुख स्रोत होता है। इस दृष्टि से पुत्र या सन्तति के लिए पिता की पूज्यता स्वतःसिद्ध हो जाती है। जैन परम्परा में भी पिता को महनीय स्थान प्राप्त है। जैन साहित्य में पुत्र शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई प्राप्त होती है:पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादाम् इति पुत्रः। (स्थानांग-टीका 493) -पुत्र वह होता है जो पिता की रक्षा करे, उसे पापमुक्त करे या पिता द्वारा स्थापित मर्यादा का पालन करे। भारतीय संस्कृति में रघुकुलशिरोमणि राम का जीवन-चरित उपर्युक्त पितृ-सम्मान का जीता-जागता उदाहरण है। पिता की इच्छा को वजन धग आदिक धर्म की तारकृतिक एकता 332
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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