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________________ 21 आदर्श भ्रातृ-प्रेम (सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) भाइयों के परस्पर प्रेम का निरूपण हमें वैदिक साहित्य में भी मिलता है। एक वैदिक वचन है- मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् (अथर्ववेद3/30/3)। अर्थात् भाई-भाई आपस में कभी द्वेष न करें । भ्रातृ-प्रेम को वेद में भी पारिवारिक सौभाग्य का आधार माना गया है- संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय (ऋग्वेद- 5/60/5 ) । अर्थात् परस्पर प्रेमयुक्त भाई सौभाग्यसम्पन्न व समृद्ध होते हैं । महाभारत के अनुसार भ्रातृ-प्रेम स्वर्गगति दिलाता हैभ्रातॄणां चैव सस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः ( महाभारत - 13/24/90)। अर्थात् जिन लोगों का अपने भाइयों के साथ स्नेह-सम्बन्ध रहता है, वे स्वर्ग-सुख प्राप्त करते हैं । सहोदर भाइयों में प्रेम होना स्वाभाविक है। एक दूसरे के हित की सिद्धि करना और अहित का निवारण करना भाइयों का जो परस्पर कर्तव्य है, वही इस प्रेम से प्रसूत है । पाण्डवों तथा दशरथ-पुत्रों का आदर्श प्रेम प्रसिद्ध ही है। छोटे भाई का बड़े के प्रति यह प्रेम श्रद्धा व भक्ति के रूप में प्रकट होता है। भक्त वह है जो स्वयं के स्व को मिटा कर अपने आराध्य की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता और उसकी अप्रसन्नता में अपनी अप्रसन्नता के दर्शन करता है। जहां स्वत्व शेष है, वहां भक्ति नहीं घट सकती । स्वत्वविसर्जन की नींव पर ही भक्ति का प्रासाद खड़ा होता है। भक्ति विनत, कृतज्ञ और प्रेमपूर्ण हृदय का आकर्षण है । भक्ति में कठिनता जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता 324
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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