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________________ पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु (वा. रामा. 4/1/123), अर्थात् उत्साही व्यक्ति कैसा भी कठिन कार्य हो, उसे करने में दुःखी या क्लान्त नहीं होते। उन्हें सभी प्राणियों के प्रति एकत्व भावना रखने तथा उन्हें आत्मवत् समझने वाले व्यक्ति को मोह, शोक आदि नहीं होते। उपनिषद् में भी कहा गया है- यस्मिन् सर्वाणि भूतानि एकत्वमनुपश्यतः । तत्र को मोहः कः शोकः, एकत्वमनुपश्यतः (ईशा. उप.7), अर्थात् सभी प्राणियों पर आत्मवत् दृष्टि के साथ एकत्व की दृष्टि रखने वाले को कहां मोह होगा और कहां शोक होगा? महाभारत में ऐसे उत्साही व जनहितकारी व्यक्तियों में राजा सुदर्शन का निरूपण प्राप्त होता है। उस राजा का उद्घोष था प्राणा हि मम दाराश्च, यच्चान्यद् विद्यते वसु । अतिथिभ्यो मया देयमिति मे व्रतमाहितम् ॥ (महाभारत, 13/2/70) __-अर्थात् मेरा यह व्रत (नियम) है कि मेरी जो कुछ धनसम्पत्ति है, और मेरी जो स्त्रियां भी हैं, यहां तक कि जो मेरे प्राण भी हैं, वे सब अतिथियों के लिए (आवश्यकतानुरूप) देय हैं। तात्पर्य यह है कि यदि किसी अतिथि को मेरे प्राण भी चाहिएं तो मैं सहर्ष देने के लिए तैयार हूं। जनहित की दृष्टि से आत्म-बलिदान तक करने की भावना यहां नितान्त उल्लेखनीय है। महाभारत में एक कथा आती है, उसमें तो एक कबूतरी शरणागत की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में पीछे नहीं रहती (द्रष्टव्यः महाभारत, शांति पर्व, 145-49 अध्याय)। जिस संस्कृति में पशुपक्षी तक जनहित की भावना से आत्म-बलिदान करने में अग्रसर हों, उस भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को विश्व में कैसे नहीं माना जाएगा? अस्तु, जैन परम्परा में भी अनुकम्पा, दया, करुणा तथा मैत्री आदि भावनाओं के व्यावहारिक क्रियान्वयन को प्रमुखता दी गई है और तात्त्विक विवेक के साथ सभी उपायों से परहितसाधन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया गया है। जैन आचार्य शुभचन्द्र ने स्पष्ट उद्घोषणा की है अभयं यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदृशं लोकं जीवलोकं चराचरम् ॥ (ज्ञानार्णव, 8/51/523) < सितीय खण्ड/301
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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