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________________ संयोग से रूद्रदत्त पुरोहित की यज्ञशाला में भोजन के लिए चले गए । यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए कुरूप मुनि को देखकर ब्राह्मण लोग कुपित हो गए । उन्होंने मुनि को गालियां दीं। धक्के देकर उन्हें वहां से भगाने लगे । यक्ष पुनः प्रकट हुआ । उसने ब्राह्मणों को अचेत करके भूमि पर पटक दिया | उनके मुंह से खून बहने लगा। रूद्रदत्त और भद्रा को सूचना मिली। वे दौड़कर आए। उन्होंने मुनि से क्षमा मांगी । यक्ष शांत हुआ। उसने ब्राह्मणों को स्वस्थ कर दिया । भद्रा ने ब्राह्मणों को समझाया - यह मुनि परमसमताशील और तपस्वी है। मुनि से टक्कर लेना पर्वत से सिर टकराने के समान है। -महिमा जानकर सभी ने उन्हें अपना आराध्य माना । अत्याग्रह पर मुनि ने भिक्षा ली और ब्राह्मणों को उपदेश दिया । चाण्डाल-कुल में उत्पन्न हरिकेशबल मुनि ने अपनी साधन करके परमगति को प्राप्त किया । मूल्य देह का नहीं, देही का है । देही अर्थात् आत्मा से जो पवित्र हो गया, वही श्रेष्ठ है, ब्राह्मण है, मुनि है और मोक्षमार्ग का वरण करने वाला पूजनीय, अर्चनीय महासाधक है। कुरूपता और निम्रकुल भी आत्मलक्ष्य की प्राप्ति में बाधा नहीं बनते हैं । देहदृष्टि से ऊपर उठकर जो देही के स्वरूप को जान लेता है वह हरिकेशबल की तरह संसार - सागर से तैर जाता है |[ उत्तराध्ययन सूत्र आदि से ] [२] महर्षि अष्टावक्र (वैदिक) महर्षि अष्टावक्र अत्यन्त कुरूप और टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले थे। उनकी विद्वत्ता और आत्मसाधना ने उनमें परम सौन्दर्य को जन्म दिया। उसी परम सौन्दर्य के परिणाम स्वरूप सुदूर अतीत से वर्तमान तक उनकी चर्चाएं - अर्चाएं होती रही हैं। महर्षि उद्दालक के एक शिष्य थे- कहोड़। कहोड़ की सेवा, विनयशीलता और तत्त्वरूचि से प्रसन्न होकर महर्षि ने अपनी पुत्री सुजाता जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 296
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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