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________________ देखना चाहिए। अगर उसकी आत्मा की ज्योति पापकर्मों के कारण धूमिल हो गई तो उस व्यक्ति की श्रेष्ठता पर किसी दृष्टि से प्रश्नचिन्ह हो सकता है। अन्यथा नहीं। सारांश यह है कि-दैहिक कुरूपता या सुरूपता अथवा जातीय निम्नता या उच्चता से मनुष्य की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता नहीं बंधी है। उसकी श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता उसके कर्म और उसकी आत्मा पर आधारित होती है। मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है। वह देह से नहीं, आत्मा से सुन्दर बनता है। यह जगत् बड़ा विचित्र है। अनेक बार यहां ब्राह्मण-कुल में चाण्डालकर्मी उत्पन्न हो जाते हैं और सर्वांग-सुन्दर देहों में अत्यन्त कुरूप आत्माएं जन्म ले लेती हैं। अनेक बार इसके विपरीत घटता है। निमकुल में ब्राह्मणकर्मी आत्माएं अवतरित हो जाती हैं तथा असुन्दर-कुरूप देहों में भव्यात्माएं जन्म ले लेती हैं। कर्म की पवित्रता और आत्मा का सौन्दर्य ही मानव को महामानव तथा नर को नारायण बनाता है। [१] हरिकेशबल मुनि (जैन) गंगा नदी के तट पर चाण्डालों की एक बस्ती थी। वहां बल नाम का एक चाण्डाल रहता था। उसका एक पुत्र था जिसका नाम हरिकेश था। हरिकेशबल कुरूप बालक था । कुरूपता के साथ-साथ उसका स्वभाव भी अतिक्रोधी था। परिणामतः सब उससे घृणा करते थे। कोई भी उसका मित्र न था। एक बार चाण्डाल बस्ती में कोई उत्सव मनाया जा रहा था। पूरी चाण्डाल बस्ती एक परिवार में बदलकर आमोद-प्रमोद में व्यस्त थी। बालक और युवक खेल में तल्लीन थे। ऐसे में अकेला हरिकेशी एकान्त में खड़ा उन्हें देख रहा था। उसका हृदय भी बालकों के साथ खेलने के लिए मचल रहा था। लेकिन उसे कोई भी खेल में सम्मिलित नहीं करना चाहता था। आत्महीनता से ग्रस्त, दुःखी, रुआंसा और क्रोधित मुद्रा में हरिकेशबल D P जैन धर्म एवं वैदिक धर्ग की सांस्कृतिक एकता/294
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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