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________________ को छोड़कर अपने स्थान को लौट आए। मुनियों को लौटा जानकर अतिमुक्त भी अपने पात्र को संभालकर लौट आए। भगवान् महावीर ने स्थविर मुनियों के हृदय की बात जानकर उनको सम्बोधित करते हुए कहा- “मुनियों! अतिमुक्त मुनि निसंदेह देह से बालक है, लेकिन वह मुनित्व के आचार का पालने वाला है। वह चरमशरीरी है। इसी भव में मोक्ष जाने वाला है। आपने एक चरम-शरीरी साधक की अविनय की है। आपको उसकी भक्ति करनी चाहिए।" "और सुनो! वह जल, जिसमें अतिमुक्त मुनि ने काष्ठपात्र तैराया था, अचित्त (निर्जीव) था । तप्त भूमि पर गिरकर जल निर्जीव हो चुका था। इस बात को जानकर ही अतिमुक्त ने अपनी नाव उस पर तैराई थी।" भगवान् की बात सुनकर स्थविर मुनियों ने अपनी भूल सुधारी। अतिमुक्त निरतिचार संयम पालकर अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। [अन्तकृत् मूत्र से] [२] घुव भक्त (वैदिक) मनु के दो पुत्र थे-प्रियव्रत एवं उत्तानपाद । महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थीं-सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव रखा गया और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरूचि से अत्यधिक प्रेम रखते थे। परिणामतः उत्तम को भी पिता का प्रेम ध्रुव की तुलना में अधिक मिला। एक दिन महाराज उत्तानपाद सुरूचि के पुत्र उत्तम कुमार को गोद में लिए बैठे थे। वे उससे प्यार कर रहे थे। पञ्चवर्षीय ध्रुव खेलते हुए पिता के पास पहुंचे और उनकी गोद में बैठने के लिए मचलने लगे। ध्रुव की विमाता सुरूचि ने ध्रुव का मार्ग रोकते हुए ईर्ष्या और गर्व से कहा- "इस गोद में बैठने का अधिकारी केवल मेरा पुत्र है। इस गोद में बैठने की यदि इतनी उत्कट इच्छा थी तो मेरे गर्भ से जन्म लेना था। जैन धर्ग एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता /2641
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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