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________________ -सभी कामभोग दुःखदायी होते हैं। न कामभोगा समयं उति। (उत्तराध्ययन सू. 32/101) -कामभोगों के सेवन से सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। बौद्ध परम्परा में भी कामभोगों की हेयता को सर्वत्र रेखांकित किया गया है:नत्थि कामा परं दुक्खं। .. (जातक 11/459/99) -कामभोगों से ज्यादा कोई दुःखदायी नहीं हैं। यो कामे कामयति, दुक्खं सो कामयति। (थेरगाथा-96) -जो कामविषयों को चाहता है, वह दुःख को ही चाह रहा है। कामभोगों में आसक्त व्यक्ति उनसे सहजतया निकल नहीं पाता । जातक साहित्य में कहा गया है: पंको च कामा पलियो च कामा मनोहरा दुत्तरा मच्चुधेय्या। एतस्मिं पंके पलिये व्यसा हीनत्तरूपा न तरन्ति पारं॥ अर्थात् काम-भोग कीचड़ हैं, काम-भोग दलदल हैं, मनोहर हैं, दुस्तर हैं, मरण-मुख हैं। इस कीचड़ में, दलदल में फंसे हुए हीनात्मा लोग तैर कर पार नहीं हो सकते। वैदिक परम्परा भी श्रमण परम्परा की तरह कामभोगों के दुष्परिणामों का निरूपण करती है और इन्हें सर्वथा त्याज्य/वर्जनीय बताती है। महाभारतकार महर्षि व्यास का स्पष्ट उद्बोधन है: न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषां कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ (महाभारत- 1/75/50) -कामभोगों के निरन्तर भोग करते रहने से कभी कामनाएं शान्त नहीं होती। वे तो उसी प्रकार बढती हैं जैसे घी डालने से अग्नि की लौ बढती है। कामभोगों के दुष्परिणाम को व्याख्यायित करने वाले दो कथानक यहां प्रस्तुत हैं जो क्रमशः जैन व वैदिक परम्परा से सम्बद्ध हैं। विसीय खण्ड, 25
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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