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________________ गणिका धरती पर पड़ी थी। निश्चेष्ट । निस्पन्द । उसके प्राण देह छोड़ कर जा चुके थे। 'अवश्य भवगान् का अनुग्रह है यह' उसने सोचा, हाथ जुड़ गये। सर झुक गया। मन में कहा- नहीं! अब गणिका नहीं थी यह । यह तो देवी थी। देवी। 000 भारतीय संस्कृति में आचार को ही श्रेष्ठता का आधार माना गया है- आचारः प्रथमो धर्मः। पुरुष हो या नारी, दोनों की श्रेष्ठता का मानदण्ड उसका सदाचार होता है। यदि कोई पापमय निन्दित आचरण को छोड़कर, सदाचारी बन जाए तो वह श्रेष्ठ ही माना जाएगा, भले ही उसका पूर्व जीवन पापमय रहा हो। मन की अशुद्धताकलुषता ही व्यक्ति को निन्दनीय बनाती है और मन की शुद्धता, सद्विचारपूर्णता उसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करती है। यह नियम सभी के लिए, चाहे वह पुरुष हो या नारी, सभी के लिए लागू होता है। नारियों में भी, अधम से अधम समझी जाने वाली, भले ही वह गणिका-वेश्या ही क्यों न हो, वह भी अपने विचारों की शुद्धता से, तथा स्वयं में त्याग-परोपकार जैसे सदगुणों को विकसित कर 'श्रेष्ठ' कही जा सकती है। पापात्मा व्यक्ति अपने वैभव का उपयोग अपने कामभोगों की पूर्ति के लिए करता है, किन्तु सांसारिक वैराग्य जागते ही वह उस वैभव को धर्मार्थ विसर्जित करने लगे, तो धर्मात्मा बनने की ओर उसका अग्रसर होना कहा जाएगा। यह सब परिवर्तन संत्सगति के करण या स्वतः अन्तर्विवेक के जागने पर सम्भव हो जाता है। उक्त सांस्कृतिक मान्यता के निदर्शन के रूप में उपर्युक्त कथानकों की प्रस्तुति सार्थक हुई है। ___ आत्मसंगीत के उद्गाता जैन मुनि स्थूलभद्र ने रूपकोशा गणिका के जीवन की दिशा बदल दी और उसे जैन धर्म एवं गैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता,232)
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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