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________________ जैसे अग्नि के संपर्क से सभी मलों से छूट कर सोना शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार भक्त के सम्पर्क से भक्ति की आत्मा कर्मजन्य सभी दोषों से रहित होकर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। प्रभु के नाम का स्मरण या उनके मंत्र का जप -ये कार्य भक्ति के ही अंग है। रामचरितमानस में भक्त शबरी को भगवान् राम ने कहा था- मंत्रजाप मम दृढ विश्वासा। पंचम भजन सो वेदप्रकासा (रामचरितमानस, अरण्य. 35/1)- अर्थात् भक्ति के नव रूपों में पांचवां भेद है- रामनाम मंत्र का जप और दृढ (श्रद्धा व) विश्वास। अतः प्रभुनामस्मरण या जप आदि से भी अशुभ कर्मों की क्षीणता, निर्बलता, एवं आत्म-विशुद्धि होकर भक्त भगवान् का इतना प्रिय हो जाता है कि उसके सामने कोई संकट ठहर ही नहीं पाते । भक्त पर होने वाली भगवान् की असीम कृपा के चामत्कारिक प्रभावों का निदर्शन वैदिक परम्परा के पुराण-साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। यहां वैदिक व जैन- दोनों सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़े कुछ कथानक यहां प्रस्तुत किये जा रहे है। जयकुमार का कथानक जैन परम्परा से, तथा द्रौपदी व गज-ग्राह की कथाएं वैदिक परम्परा से चुनी गई हैं। प्रभुनाम स्मरण से कभी कभी चमत्कारपूर्ण घटना घटित हो जाती है- इस सत्य का निदर्शन दोनों परम्पराओं के कथानकों में समान रूप से कराया गया है, जो पठनीय व मननीय है। कथानकों के पात्र व स्थल आदि भिन्न हो सकते हैं, किन्तु सत्य-कथ्य और तथ्य एक ही है। [१] जयकुमार का जलसंकट (जैन) तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के पौत्र तथा बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ हस्तिनापुर में राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीवती था। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम जयकुमार था। जयकुमार न केवल अपने माता पिता को प्रिय था बल्कि प्रजा भी उससे बहुत प्यार करती थी। यौवनावस्था में जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सारकृतिक एकता/2140
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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