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________________ “अर्जुन! इस मेवे के उपभोग में क्या मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है?'' श्रीकृष्ण बोले- “मुझे मेरे भक्तों की पत्तलें उठाते हुए बड़ा आनन्द मिल रहा था। तुमने अनायास उस आनन्द में बाधा उत्पन्न कर दी।" ___ पांचों पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण की सेवापरायणता- भगवत्ता को अपलक नेत्रों से देखते हुए अभिभूत हो उठे थे। (द्रष्टव्यः महाभारत, सभा पर्व का 35वां अध्याय) 00 [३] सेवापरायण भक्तिमती शबरी (वैदिक) श्रीराम की अनन्य चरणोपासिका शबरी का जन्म अधम कुल में हुआ था। अधम कुल में जन्मी शबरी ने अपने भीतर उत्कृष्ट गुण-समूह को विकसित किया। भारतीय जनमानस में उसकी कीर्ति अमर हो गई। अपने विवाह के प्रसंग पर निरीह मूक पशुओं की हत्या की कल्पना ने करूणामयी शबरी के हृदय को हिला डाला । रात्री के अन्धकार में शबरी ने गृहत्याग कर दिया । पशुओं को स्वतन्त्र करके वह अलक्ष्य मार्ग पर बढ गई। उसके कदम दण्डकारण्य में रूके। उसने वहां अनेक ऋषिआश्रम देखे । शबरी ने वहीं रहकर ऋषि-सेवा का व्रत धारण कर लिया। लेकिन वह युग जातीय प्रथा का युग था। अधम कुल में जन्मी शबरी को ऋषि-सेवा का अधिकार न था। शबरी इस बात को भलीभांति जानती थी। अतः उसने गुप्त सेवा करने का निश्चय कर लिया। अपने आपको अप्रगट रखती हुई शबरी उन मार्गों को साफ करती थी जिनपर ऋषि जन इधर-उधर जाते थे। वह जंगल से सूखी लकड़ियां एकत्रित करके प्रातः अन्धेरे में ही उन्हें ऋषि-आश्रमों के निकट रख देती। उसने अपने सुख को बिसरा दिया और दिन-रात इसी सेवा कर्म में वह तत्पर रहने लगी। ___ कंटीले रास्तों को निष्कण्टक और कंकर-पत्थर रहित देखकर तथा आश्रम-द्वारों पर समिधा का संग्रह देखकर ऋषि जन आश्चर्यचकित हो पिलीय ताड 147
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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