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________________ वे भीलों की एक पल्ली में रहते थे। इस भील समूह को धर्म-कर्म का कुछ ज्ञान न था। शुभपुण्योदय से शबरी में भगवद्भजन की उत्कण्ठा जगी। वह राम नाम को आधार बनाकर श्रीराम की भक्ति करने लगी। रामनाम सुमरण से अन्य अनेक मानवीय गुण उसके जीवन में अलंकृत हो गए। शबरी विवाहयोग्य हुई। एक भील युवक से उसका सम्बन्ध तय हुआ। विवाह में बारात के भोजन के लिए भीलों ने अनेक पशुपक्षियों को एक विशाल बाड़े में बन्द कर दिया था । बन्धनों में तड़पते वे पशु-पक्षी करुण क्रन्दन कर रहे थे। उनके क्रन्दन की ध्वनि शबरी के कानों में पड़ी। शबरी उस क्रन्दन को सुन न सकी। उसका हृदय करुणा से भर गया। शबरी ने अपनी सहेली से पूछा- “इन पशु-पक्षियों को यों बाड़े में बन्द क्यों किया गया है?" "तुम्हारे लिए आने वाली बारात के भोजन के लिए इन पशुपक्षियों का मांस पकेगा, सखि! इसीलिए इन्हें बन्दी बनाया गया है।" सहेली ने शबरी को बताया। . "मेरा घर बसेगा और अनेकों जीवन उजड़ जाएंगे।" शबरी का चिन्तन जाग उठा-"मेरी शादी और मूक पशुओं की बरबादी! मैं ऐसी शादी नहीं करूंगी। मैं आजन्म कुंआरी रह जाऊंगी पर किसी प्राणी की हत्या का निमित्त नहीं बनूंगी।" रात्री में शबरी उठी। उसने चुपके से बाड़े का द्वार खोल दिया । पशु-पक्षी स्वतंत्र होकर भाग गए। शबरी भी रातों-रात उस स्थान को छोड़कर दूर निकल गई। वह दण्डकारण्य में पहुंची। वहां एक झोपड़ी बनाकर भगवद्भजन और ऋषियों की सेवा में निमग्न रहने लगी। इसी स्थान पर उसके हृदय की पुकार की डोर से बन्धे श्रीराम उसकी झोपड़ी में आए थे और भक्ति-भाव से प्रदत्त जूठे बेर खाये। शबरी ने अपना शेष जीवन वहीं व्यतीत किया। 000 शिगि काण्ड 139 द्वितीय तण्ड 139 -
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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