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________________ जैनाचार्य अकलंक तं वन्दे साधुवन्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तम्, बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा॥ (अकलंकस्तोत्र-9) - समस्त गुणों के निधि, सभी दोषरूपी शत्रुओं को ध्वस्त करने वाले तथा सज्जनों के वन्दनीय परमात्मा की वन्दना करता हूं, जिसे बुद्ध, महावीर, कमलासन (ब्रह्मा), विष्णु या शिव कहा जाता है। जेनाचार्य हरिभद्र आत्मीयः परकीयो वा कः सिद्धान्तो विपश्चिताम्। दृष्टेटाबाधितो यस्तु युक्तस्तस्य परिग्रहः ॥ (योगबिन्दु,525) _ -विद्वान् लोगों के लिए कोई सिद्धान्त न अपना होता है और न ही पराया। जो भी सिद्धान्त प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित/ प्रतिकूल नहीं होता, उसे ही वे अपना लेते हैं। युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः। (लोकतत्त्वनिर्णय,38) - युक्तियुक्त वचन जिसका भी हो, उसे अपना लेना चाहिए। आगमेन च युक्त्या वा योऽर्थः समभिगम्यते। परीक्ष्य हेमवद् ग्राह्यः पक्षपाताग्रहेण किम् ॥ (लोकतत्त्वनिर्णयक,18) -आगम से और युक्ति से जो पदार्थ समझ में आए, उसकी अच्छी तरह उसी प्रकार जांच-परख करनी चाहिए जैसे लोग सोने को (आग में पका कर) परखते हैं, यूं ही किसी मत-विशेष के प्रति पक्षपात नहीं करना चाहिए।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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