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________________ (4.) भारतीय संस्कृति का उत्सः आत्मोपासना वैदिक परम्परा के उपनिषत्साहित्य में आध्यात्मिक वैचारिक क्रान्ति के स्वर मुखरित हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वहां ज्ञान-मार्गी विचारधारा का प्रवाह दिखाई पड़ता है। दुःखों से विमुक्ति प्राप्त करने के लिए सभी जीवों के शरीर में स्थित परमदेव-आत्मा के स्वरूप को जानना वहां अत्यावश्यक माना गया है । (द्र. श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/ 13,2)। उक्त परम विशुद्ध आत्म-तत्त्व को अपनी आत्मा में साक्षात्कार करना शाश्वत-सुखमय परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति का साधन है (कठोपनिषद्-2/5/12, मुंडकोपनिषद्- 3/1/3)। (आत्मा ही उपास्य:-) उपर्युक्त वैचारिक पृष्ठभूमि में उपनिषत्कार उसी एकमात्र परमात्म-तत्त्व की उपासना करने का निर्देश देते हैं। (द्र. छान्दोग्य उपनिषद्8/12/6 बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/7-8,4/4/12-16, मुंडकोपनिषद् 3/2/1-9, 3/1/5)। ___ जैन विचारधारा भी उपर्युक्त विचारधारा से पूर्ण सहमति व्यक्त करती है। अखण्ड-अद्वैत-निर्विकार चित्स्वरूप परमात्म-तत्त्व से एकात्मता/तादात्म्य की अनुभूति स्वयं में करने और उसी तत्त्व की उपासना करने के निर्देश जैन शास्त्रों में प्रचुरतया प्राप्त होते हैं। (द्र. पूज्यपाद-कृत समाधिशतक-3-33, 35) उपनिषद की भी घोषणा है- आत्मा ही साक्षात्कारयोग्य, श्रवणयोग्य व मननयोग्य है :(बृहदारण्यक उपनिषद् 4/5/6 : आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः) । भागवत पुराण में विविध रूपों में अवतरित होने वाले भगवान् विष्णु को 'सर्वात्मा' विशेषण से अभिहित किया गया है और एकमात्र उस सर्वात्मतत्त्व का श्रवण, कीर्तन, स्मरण करना अपेक्षित बताया गया है: तस्माद् भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः। श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताऽभयम् ॥ (भागवत पुराण- 2/1/5) प्रथम 95
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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