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________________ கககக *******ழ**** *** 卐 अध्ययन- - अनुशीलन किया था और उन्होंने अपनी समीचीन दृष्टि को इस प्रकार अभिव्यक्त किया था: 卐 卐 फ्र 卐 55555555 卐 卐 सुनिश्चितं नः परतंत्रयुक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसंपदः । 卐 तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिताः, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुषः ॥ (द्वात्रिंशिका - 1 / 30) सम्भवतः आचार्य सिद्धसेन ने परस्पर समन्वय तथा प्रयास किया था । परवर्ती आचार्यों ने भी यथासमय उक्त परम्परा अर्थात् (हे जिनेन्द्र!) परकीय (अर्थात् जैनेतर) शास्त्रों की युक्तियों में जो कुछ सुवचन - निधि प्रतिबिम्बित या दृष्टिगोचर हो रही है, वह सब तुम्हारी ही है, तुम्हारे ही उपदेश-रूपी समुद्र 卐 卐 से निकली (निधियां ही ) हैं । इस प्रकार जिनवाणी की बूंदें ही समस्त विश्व के लिए प्रमाणभूत (सत्य) हैं - यह हमें अब निश्चित हो गया है। को जीवित रखते हुए, सभी धर्मों व दर्शनों में अनुस्यूत एकसूत्रता के अन्वेषण का प्रयास जारी रखा और एक समन्वित भारतीय संस्कृति का दिव्य रूप उपस्थापित किया है। 卐 का निम्नलिखित निर्देश भी सदा मार्गदर्शन करता रहा हैः 卐 卐 • सम्मत्तपरिग्गहियाइं सम्मसुयं । 卐 卐 5 5 5 5 5 卐 चत्तारिय वेया संगोवंगा....... एयाइं चेव सम्मदिट्ठिस्स फ्र (नन्दीसूत्र - 4/67) 卐 卐 फ्र 4 सर्वमान्य सत्य के अन्वेषण की दिशा में यह सर्वप्रथम सफल फ्र 卐 卐 9559595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 फ 卐 卐 ऐसे सत्प्रयासों की पृष्ठभूमि में जैन आगम 'नन्दीसूत्र' 5 S 卐 卐 卐 卐 - अर्थात् सांगोपांग वेद (वैदिक साहित्य) भी 'सम्यक् श्रुत' है ( पठनीय - मननीय है), यदि सम्यग्दृष्टि व्यक्ति इन्हें 'सम्यक्त्व' (समीचीन, सत्यान्वेषण की दृष्टि) के साथ ग्रहण करे | फ्र 5 फ्र
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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