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________________ आलसियाँ को काम दिरावे, निरनिया ने धन । धनवानों रो मद घटावे, चरखा माने धन ॥८॥ 'धीरज' घर बतलावू साहन, जो लादोला चरखा । मुख संपत अमृत री घर में, हो जावेला बरखा ॥९। बना लज. मोटः धीरे धीरे का, डरावना चित !) सो पर बारी बार हजारी बलाता अरजी मुनजो जी। खादी लादो लंगी लाशे, रेजी लादोजी टेर।। खादी रो रंग-रंगीली, आजादी करनार । बरबादी मेटे भारतरी, सादी रेजी दार ॥१॥ साठ कोड रो कपड़ो पियाजी, परदेशां सं आवे । वरसा वरसी देश माँय सं, द्रव्य खींच ले जावे ॥२॥ चरबो री चरचा सुणतो तो, खले कान रा डाटा। गोहत्या रो पाप मोटको, लागे जिणसं घाटा ॥३॥ खादी मांये घणी सादगी, दूर करे अभिमान । हृदय धर लो आप बनासा, कम खरचा रो ज्ञान ॥४॥ रेशम री तो बात न पूछो, हिंसा रो है गेह । कोडां री हत्या भारी, किकर धारो देह ॥५॥ खरचो घटिया देश सुधरया, आप अनीति छूटे । आमदानी थोड़ी खरचो ज्यादा, माहें लूटे ॥६॥ 105
SR No.006295
Book TitleSwarna Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherPannalal Jamnalal Ramlal
Publication Year
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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