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________________ प्रथमः सर्गः ७७.. पश्चान्न सत्कृतिरतो ललितानि तानि, सामुद्रिकैनिगदितानि सुलक्षणानि । · स्पर्दोत्सुकानि गुणपात्रपवित्रगात्रे, प्रोल्लेसुरस्य गगने इव तारकाणि ॥ उस समय सामुद्रिकशास्त्रियों द्वारा कथित जो अच्छे अच्छे ललित लक्षण थे उनमें स्पर्धा पैदा हो गई। उन्होंने सोचा, इनके बाद हमें सत्कार नहीं मिलेगा, अतः वे एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए, एक से एक आगे बढ़कर इनके गुणपात्र रूपी पवित्र गात्र में वैसे ही शोभित हो गए जैसे आकाश में तारे। ७८. केशालिरस्य सुरकेलिगिरीशशृङ्गे, नव्योदयच्चलरुहाङ्करराजराजी । वक्रत्वमत्र हृदयाद् बहिरेत्य वासाऽभावादिहैव वरमण्डनतां गतं तत् ।। सुमेरु शिखर पर नयी उदित होती हुई चञ्चल दुर्वांकुरों की श्रेणियों की तरह ही इनके मस्तक पर केशों की श्रेणियां सुशोभित हो रही थीं। और मानो वक्रता ने इनके हृदय में निवास स्थान न पाकर केशों में घंघरालेपन के रूप में निवास पा लिया और केशों की वह वक्रता भी उनके लिए अलकार बन गई। ७९. उत्तुङ्गवर्तुलममुष्य शिरःप्रदेश, माङ्गल्यकामकलशोपमतां दधानम् । उष्णीष नामकमिदं महिमानिधानं', काले कलौ युगप्रधानपदत्वसूचि ॥ ___ इनके शिरःप्रदेश में ऊंचा, गोलाकार, मंगल-कामकुंभ की उपमा को धारण करने वाला, जो उष्णीष नामक महिमा-निधान था, वह इनके इस कलिकाल में युगप्रधान पद की सूचना देने वाला था। ८०. आर्योपकारि यवनार्यविकारहारि, . सारांशतत्त्वमणिरत्नविकाशकारि । यन्मस्तकं प्रथमचक्रधरार्षभेर्वा, छत्रं समुच्छ्रितमवावदनं चकाशे ॥ १. उष्णीष - मस्तक पर मांगलिक चिन्ह जो भविष्य की पवित्रता का द्योतक है । (आप्टे) २. आ समन्तात् निधानं-आनिधानं । महिम्न: आनिधानं इति महिमानि धानम् । ३. वा-इवार्थे । -
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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