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________________ नवम : सर्गः ..२९५ वह कैसा सिद्धान्तसार, जिसकी अभिव्यक्ति करने में बदन संकुचित होता हो ! वह कैसा मनुष्य, जो लोगों को अपना बनाए रखने के लिए सत्य-सिद्धान्त के निरूपण में भी लज्जा का अनुभव करता है ! वह कैसी लिप्सा, जो पथच्युत करती है और घातक होती है। वह कैसा झपापात और वह कैसा मरण जो उत्थान का हेतु न बने ! १७४. शुद्धां शैलीमतिशयऋतां शाम्भवीं सन्निरस्य, दृष्ट्वा वक्त्रं तदिव तिलकं कर्तुकामा इदानीम् । भीतिर्नृणां वृजिनवृजिनानां न मुक्तात्मनां च, सजाताः किं खलु परवशाः स्वर्गसद्मध्वजाभाः॥ हम वीतराग की अत्यंत शुद्ध और सत्य शैली को छोडकर उसका निरसन कर 'मुंह देखकर तिलक करने की' विधि को अपना रहे हैं । कुटिल कर्मों के बंध और परमात्मा का हमें भय नहीं है। हमें भय है लोगों का कि वे हमसे विलग न हो जाएं ? क्या हम इतने परवश और मंदिर पर फहराने वाली ध्वजा की भांति अस्थिर हो गए हैं ? १७५. शुद्धाचाराचरणकरणाकीर्णसंकीर्णकीर्णे वर्णावर्णादिकबहुबहिर्भावसाम्यैः फलं किम् । जात्येकत्वात् सुरभिपयसो भावतोऽर्कस्य दुग्धपानाद् जीवेत् किमिह मनुजो दुविशालत्वबुद्धिः ॥ केवल बाह्य वेशभूषा तथा अन्य विविध समानताएं होने पर भी उस साधुता का फल क्या होगा जो शुद्ध आचार तथा चरण-करण से संकीर्ण अर्थात् शून्य है ? साधुवेश मात्र से ही साधु नहीं बन जाता। गाय और आक के दूध में जाति और नाम की समानता है। फिर भी क्या आक का दूध पीकर कोई मनुष्य जीवित रह सकता है ? बाह्य समानता को महत्त्व देना दुर्विशालता की बुद्धि मात्र कही जा सकती है। १७६. खण्डेलासूगुडखलसमीकारवद् साम्यमिच्छेत् यत् प्रभ्रष्ट : सह खलु सतां स्यात्कथं युक्तियुक्तम् । यैश्च स्वीयापणमणिगणोल्लुण्टनालुण्टनत्वमौदार्यः किं बहुहितहरैस्तादृशै मरूपैः ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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