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________________ नवमः सर्गः २९१ ___ संसार के जितने भी कार्य अर्हत् की आज्ञा से रहित हैं, उनको यदि अनासक्त आदि भावों से संपादित किया जाए फिर भी उन कार्यों में वीतराग देव का धर्म नहीं हो सकता। इसी प्रकार सावद्य अनुकंपा और सावद्य दान में भी धर्म नहीं हो सकता। हां, इतना अन्तर अवश्य हो सकता है कि तीव्र और मन्द अध्यवसायों के आधार पर कर्मबंध तीव्र या मंद हो सकता है। १६०. योद्धारो ये समररसिका योद्धमुत्साहयुक्ताः, प्रोज्झ्य प्राणावनिपरवशागेहमोहानुसक्तीः। युध्यन्ते ते निहितमनसा धूतकार्यान्तराश्च, तत्तत्यागे भवति सुकृतं कि धिया लोचनीयम् ॥ युद्ध रसिक योद्धा जो युद्ध में पूर्ण उत्साह से लड़ते हैं, वे प्राणों का, . तथा राज्य, स्त्री एवं घर का मोह छोडकर, दूसरे सभी कार्यों से मन को मोडकर तल्लीनता से युद्ध लडते हैं । तो क्या प्राणों आदि की ममता छोडने से धर्म होता है ?-यह विमर्शणीय है। १६१. रागद्वेषावतसममतामोहमाया' विना नो, यत् सावद्यं भवति न कदाप्यहिक कार्यजातम् । मोहाऽमोहप्रभृतियुगपत् स्यान्नचैकत्र कार्ये, धर्माऽधमौं तत इह कथं ह्येककार्य भवेताम् ॥ संसार में जितने कार्य हैं वे राग, द्वेष, अव्रत, ममता, मोह, माया आदि के बिना नहीं होते। जो राग आदि से संवलित होते हैं, वे सावध ही होते हैं। एक ही कार्य में मोह और अमोह-दोनों नहीं हो सकते । तो फिर एक ही कार्य में धर्म और अधर्म--दोनों कैसे हो सकते हैं ? १६२. दुष्टैर्भावैर्भवति न पृथक् दुष्टकार्य कदादि च्छुद्धैर्भावैस्त्रिजगति विना शुद्धकार्य भवेन्न । आज्ञाबाह्यं जिनभगवतां भावकार्याण्यऽशुद्धमाज्ञायुक्तान्यपि तनुमतां भावकार्याणि शुद्धम् ॥ कभी अशुद्ध भावों के बिना अशुद्ध कार्य नहीं होता और शुद्ध भावों के बिना शुद्ध कार्य नहीं होता। अहम् की आज्ञा के बाहर जितने भाव और कार्य हैं, वे अशुद्ध होते हैं और वीतराग की आज्ञा युक्त भाव और कार्य, शुद्ध होते हैं। १. द्वितीयाबहुवचनम् ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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