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________________ २८० १२५. वीरस्यासंश्चतुरुपनवप्राक्सहस्रा हि सन्तः, सार्वाः सप्तादिशतयतयस्तेषु जाताः परन्तु । शेषारच्छद्मस्थितिगतिगताः किञ्च ते नाड़िके द्वे, शुद्धां दीक्षां भवदभिमताद् वाह्याञ्चक्रिरे नो ॥ 1 'भगवान् महावीर के चौदह हजार मुनि शिष्य थे । उनमें से केवल सात सौ मुनि ही केवलज्ञान प्राप्त कर सके, शेष मुनि छद्मस्थ की स्थिति में ही रहे । तो क्या आपके मतानुसार उन मुनियों ने दो घडी का भी शुद्ध संयम नहीं पाला ?' १२६. छद्मस्थोऽस्थात् परमदलवद् द्वादशाब्दं च वीरो, युष्मद् युक्त्या द्वितयघटिकां नोढवान् सोपि तत् किम् । एवं साक्षात् परिषदि तयोः सम्प्रवृतातिचर्चा, किन्त्वाचार्योप्यनुचितहठी बोधितो नैव बुद्धः ॥ श्रीभिक्षु महाकाव्यम्. भगवान् महावीर स्वयं बारह वर्ष ( तथा तेरह पक्ष ) तक छद्मस्थ ' अवस्था में ही रहे । तो क्या, आपकी युक्ति के अनुसार उन्होंने दो घडी तक भी शुद्ध संयम का पालन नहीं किया ?' इस प्रकार बडलू नगर में आचार्य रघुनाथजी और मुनि भिक्षु में विशाल परिषद् के बीच चर्चा चली । किन्तु अनुचित आग्रह के धनी आचार्य समझाने पर भी नहीं समझ पाए । १२७. श्रद्धाचारप्रमुखविषये स प्रणाय्यो ऽप्रणाय्य', आत्माचार्यैरवगमयितुं या कृता भूरिचर्चा । यत् कर्त्तव्यं भवति सुविनेयस्य सर्वं कृतं तत्, तस्योल्लेख fara विदधे लेखनीगोचरोच्चम् ॥ सभी के द्वारा अभिमत निष्काम मुनि भिक्षु ने श्रद्धा और आचार के विषय में अपने आचार्य को उद्बोध देने के लिए विस्तृत चर्चा की और एक सुविनित शिष्य को जो करना चाहिए वह सब किया परन्तु मैं उसका उल्लेख कैसे करूं, क्योंकि वह मेरी लेखनी के सामर्थ्य से बाहर है । १२८. आसीद् भिन्नो जयमल मुनिस्तत्पितृव्यो गुरुर्यः, सोप्याचार्यः सहजसरलः सोऽमिलत् क्वापि साधु । तं सम्बद्धुं विधिवदते विश्वविश्वोपकारी, श्रीमद्भिक्षुर्भुवनभविनां भव्यभाग्याब्जभानुः ॥ १. सार्वा :- सर्वज्ञः । २. प्रणाय्य: - निष्काम, विरक्त । · ३. अप्रणाय्यः - अभिमत ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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