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________________ नवमः सर्गः २६३ ६४. सूरिः प्राख्यत् समयसमये निमिमे यच्च यच्च, निष्प्रत्यहं निखिलमपि तत्तद् यथार्थ मनुस्व.। निर्माहि त्वं तदनुकरणं तिष्ठ मे शासनेषु, स्वस्थामास्थां मयि कुरुतरां शाश्वतानन्ददात्रीम् ।। ___ रघुनाथजी बोले-'शिष्य ! समय-समय पर मैं जो कुछ करता हूं, उसे तुम निर्बाध रूप से यथार्थ मानो, उसी का अनुसरण करो तथा मेरे अनुशासन में रहो और शाश्वत आनन्द को देने वाली स्वस्थ श्रद्धा को मेरे प्रति नियोजित करो।' ६५. प्रत्याचष्टे समयसमयोल्लङ्घनः सेव्यमानं, कुत्स्याचारं सदयनयविप्लावकं जल्पनं च। स्वीकुर्यात् कः कथमिव निरीक्षापरीक्षासु दक्षस्तादृक्षान्धास्थितिभिरधुनालं महादुःखदाभिः ॥ मुनि भिक्षु ने उत्तर देते हुए कहा—समय-समय पर सिद्धान्तों का उल्लंघन कर आसेवित अनाचार को तथा सद् विचारों के विप्लावक कथनों को निरीक्षण और परीक्षण करने में दक्ष कौन व्यक्ति किस प्रकार स्वीकार करेगा ? महान् दुःखदायी उस अन्धानुकरण की वृत्तियों से क्या प्रयोजन ? ६६. नानायत्नविविधविधिभिर्बोधितो बुद्ध वय नों बुद्धोऽसौ गुरुरभिधया नो मतं तेन किञ्चित् । सत्तोन्मादैः सुनयिविनयं प्रत्युतोद्भीषणार्थ, : संवृत्तश्च स्वरुचिशिथिलाचारसंस्थापनार्थम् ॥ बुद्धिमान् मुनि भिक्षु ने विविध प्रयत्नों तथा अनेक विधियों से आचार्य को समझाना चाहा, पर वे नहीं माने और उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। प्रत्युत सत्ता के उन्माद से उस सुविनीत शिष्य भिक्षु को डराने लगे और अपनी रुचि के अनुसार शिथिलाचार की संस्थापना करने लगे। ६७. तादृगवृत्त्या मनसि विदितं भिक्षवयस्तदानों, नायं बोद्धा कथमपि गुरुलौकिकाऽऽसक्तिसक्तः । अद्याहं निस्तरणमनघं स्वात्मनस्तत् करोमि, मोक्षाकांक्षी निजहितरतः कोन्यपृष्ठे ब्रुडेच्च ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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