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________________ नवमः सर्गः २५७ ४३. शुद्धर्योगर्भवति सुतरां पुण्यबन्धोऽप्रबन्धोऽ शुद्धर्योगैनियमिततया पापबन्धोऽविरोधः। किन्त्वेतादृक् सुविशदनयात् कोऽस्ति योगस्तृतीयो, यत्तद् द्वैतं ननु च युगपद् यो नयेन्मुच्यते च ॥ प्रशस्त योगों से निश्चित ही पुण्य-बंध होता है और .. अप्रशस्त योगों से पाप-बंध भी निश्चित होता है। न्यायदृष्टि से सोचने पर ऐसा तीसरा कोई भी योग नहीं है जो एक साथ पुण्य और पाप की योजना कर। सके। ४४. श्रीमन्तस्तत् स्वसमुपगतं ये हॉ प्रोज्झ्य जैनी, सत्यां श्रद्धां समुपददतां पोतकल्पां भवाब्धौ। राद्धान्तानां विमलवचने रक्षणीया प्रतीति- . रस्मिन् काले नहि तदपरं साधनं साध्यसिद्धय ॥ इसलिए आप श्री अपने गृहीत हठ को छोडकर जिनेश्वर देव की सच्ची श्रद्धा को स्वीकार करें, जो भवसागर से पार लगाने में जहाज के समान है। सिद्धान्तों के विमल वचनों पर प्रतीति रखना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि इस कलिकाल में साध्य की सिद्धि के लिए उससे अतिरिक्त कोई दूसरा साधन नहीं है। ४५. आज्ञाबाह्ये जिनभगवतां नास्ति धर्मस्य लेश; . . . : आज्ञायां नो तदिव दुरितोद्भावनं वा कथञ्चित् । तत्त्वाम्भोधेरमृतममलं सारभूतं त्विदं हि, यः सर्वत्राऽस्खलितगतिमान् सार्वभौमो नियोगः॥ जिनेश्वर देव की आज्ञा के बाहर धर्म का लेश भी नहीं है। इसी प्रकार आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने में लेशमात्र भी पाप नहीं है। यही जैन तत्त्व-सागर का सारभूत अमृत है। यही सर्वत्र अस्खलित गति वाला है और यही सार्वभौम नियम है । ४६. फुल्लाब्जान्तनिपुणनयनै रत्नसङ्ग्राहिवच्च, भूयो भूयो निजहितपुरस्कारपूर्व समीक्ष्य । साङ्गोपाङ्गप्रवचनचये ध्यानमाधाय दिव्यं, प्राज्यः प्रोज्झ्यश्चिरपरिचितो रोगवत् पक्षपातः ।।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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