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________________ षष्ठः सर्गः १९९ ___ कर्म-विपाक से होने वाले दुःखों को भोगते हुए वे व्यक्ति अशुभ योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति), आर्त्तचिन्तन तथा विषम ताप से तिरोहित वासना से नए-नए कर्मों का बंधन कर लेते हैं । १२३. उदिते कृतकर्मणि वेदमृते, नहि मुक्तिरिहास्ति कृतोऽपि ततः । जनयन्ति तथापि जनाः प्रकट, भृशमाकुलतां क्षमतापहरीम् ॥ यह जानते हुए भी कि कृत कर्मों का उदय होने पर उन्हें भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं, फिर भी कष्ट उपस्थित होने पर सहनशीलता को दूर करने वाली आकुलता से मानव अत्यंत व्याकुल हो उठता है। १२४. उदितान् यदसातविपाकचयान, विषमाशयतोऽनुभवन्त इति । पुनरेव नवांश्च तथानुकरान्, प्रचयन्ति चयन्त्यनभिज्ञनराः॥ जो उदय में आने बाले असात वेदनीय कर्म के विपाकों को विषम अध्यवसायों से भोगते हैं, वे अनभिज्ञ मनुज पुनः उसी प्रकार के नए कर्मों का चय-उपचय कर लेते हैं। १२५. समभावतया निजकर्मऋणादनृणीभवने समयोपगते । ऋणिनः पुनरेव भवन्ति मुधा, गदिनो विषमाध्यवसायवशाः ॥ समभाव से कृतकर्मों का ऋण चुकाने का सुअवसर प्राप्त होने पर भी रोगाक्रान्त मनुष्य विषम अध्यवसायों के कारण व्यर्थ ही पुनः ऋणी बन जाते १२६. अह तत्र नरेन्द्रनरेन्द्र इवाऽऽधुतपूर्वशुभेतरसुष्टशुभः । तुहिन ज्वरितोप्ययमेव मुनिः, समवेत् किल कीदृशमात्मधनः॥ परन्तु ऐसे शीत ज्वर से परिपीड़ित अवस्था में भी ये महामुनि समभावों से अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों का उच्छेद करते हुए शुभ कर्मों को वैसे ही.स्थापित कर रहे हैं जैसे कि पहले के दुष्ट राजाओं को हटाकर चक्रवर्ती उनके स्थान पर नवीन उत्तम राजाओं की स्थापना करता है। १२७. उदयेऽवधिकाधिकवेगवती, परलोकभयाकुलता वितथैः । स्फुरदन्तरसारविरागवतामिदमेव हि लक्षणमार्यनृणाम् ॥ अन्तःकरण में स्फुरित होने वाले सार-विराग वाले आर्य मनुष्यों में परलोक की भीति से उत्पन्न आकुलता अधिक से अधिक वेग वाली प्रतीत होती है, यही आर्य पुरुषों का लक्षण है । १. समयः-अवसर।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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