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________________ पंचमः सर्गः १५५ ९०. अद्यैव किं कलियुगं कलयेत् स्वकेली, नन्दन्ति यत्र पतिताः श्लथिता द्विजिह्वाः । आदर्शनीतिवृषशीर्षकनामपृष्ठे, पापप्रजा फलति पुष्पति फुल्लतीति ॥ आज यहां पतित, श्लथ और दुष्ट व्यक्ति आनन्दित हो रहे हैं । आदर्श, नीति और धार्मिक अनुष्ठानों की ओट में पापी दुनिया फलित, पुष्पित और विकस्वर हो रही है । प्रतीत होता है कि कलियुग अभी से यहां क्रीडारत हो गया है । ९१. एते हि निन्दकवरा इति लाञ्छयित्वा ऽस्मत्तो परान् पटुतया विनिवारयन्ति । श्रोतव्यमेव न यदुक्तमयुक्तमेवं, व्युद्ग्राहयन्ति निजपोल्लविमुक्तिभीभिः ।। वे अपनी पोल खुल जाने के भय से ही पटुता के साथ लोगों को यह कह कर हमारे से दूर रखने लगे हैं कि ये निन्दक हैं, इनका कहना अनुचित है, इनकी बात सुननी ही नहीं चाहिए। इस प्रकार वे अपने बचाव के लिए लोगों को सचाई से दूर रखने लगे हैं। ९२. आ एक एव पुनरस्त्यवशेषशेषो, यस्य प्रवृत्तिरमला प्रबला विरक्तौ। दैवात् स भिक्षुरिह भो ! उदयात्तदानीं, वाष्पं विमुञ्चयितुमुत्प्रवणा भवामः॥ उन श्रावकों ने आगन्तुक मुनियों की इस एक जैसी प्रवृत्ति को देख निराश होकर सोचा, अब तो सिर्फ एक मुनि भिक्षु ही ऐसे रहे हैं जो विरक्ति के मार्ग में अत्यन्त निर्मल और प्रबल हैं। अगर वे हमारे भाग्योदय से यहां पर आ जाएं तो कम से कम मन की भाप तो उनके सामने निकाल ही लें। ९३. तत्राश्रुतः श्रवणशष्कुलिकोलकल्पो, राट्पूरुदन्त उदितो रघुराजकेन । श्रद्धालवो न नमिताः शमिताः स्वशिष्यः, साधीयसी स्थितिरिहान्यतराऽपि नास्ति ॥ जब रघुनाथजी ने राजनगरीय श्रावकों की इस कर्णकटु घटना को सुना तो उन्हें मालूम हुआ कि न तो वहां के श्रावकों ने वन्दना ही शुरू की, न शिष्य मुनियों ने उनको समाहित किया और न वहां दूसरी परिस्थितियां भी अनुकूल रहीं।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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