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________________ पंचमः सर्गः १४७ ५९. अग्रेसरान् प्रमुखकार्यपदाभिषिक्तान्, साक्षात्प्रभावविवशान् परतः स्वतो वा। कांश्चित्कथं कथमपि स्वमतानुकूलचारान् प्रचारकपदान् प्रणयन्ति तन्त्रैः॥ कुछ श्रावकों को प्रमुख कार्यकर्ता एवं अग्रेसर बनाकर, कुछ श्रावकों को अपने व्यक्तिगत प्रभाव से, कुछेक को माता, पिता, सगे-सम्बन्धियों के दबाव से तथा कुछेक व्यक्तियों को ज्यों-त्यों अपने अनुकूल आचरण वाले बनाकर अपनी रीति-नीति का प्रचार करने वाले प्रचारक बना दिया। ६०. एवं क्षतव्रतगणा अपि तान् गृहस्थान्, वर्धाप्य वल्गु निजहस्तयितुं यतन्ते । फुल्लास्ततोऽमततदिङ्गिततानुसारिकोलाहलं कलयितुं प्रणवाश्च तेऽपि ॥ इस प्रकार उन शिथिल साधुओं ने उन भोले-भाले श्रावकों को बढ़ावा दे-देकर अपना बनाने का प्रयत्न किया। वे श्रावक उन साधुओं को चाहते हों या नहीं, पर उनकी बातों से फूलकर उनके इंगित के अनुसार यत्र-तत्र कोलाहल करने में निपुण हो गए । ६१. सत्यास्ततोऽथ परिलोच्य विचिन्तयन्ति, कीदृक् समानयुगली मिलिताऽनयोश्च । ये यादृशा श्लथतरा गुरव: सगर्वाः, श्राद्धा इमे पि च तथा शिथिलत्वपोषाः ॥ उन सत्यप्रेमी श्रावकों ने पर्यालोचन कर चिन्तन किया कि कैसी समान जोडी मिली है, इन दोनों की। जैसे श्लथ गुरु हैं, वैसे ही शिथिलता के पोषक ये श्रावक हैं, जो अपने आप में गर्व का अनुभव करते हैं। ६२. केचिद् गतानुगतिका: सरलस्वभावाः, दृष्ट्यातिचारुचतुरा अपि नो वदन्ति । द्वेषो न राग इति केऽपि समानभावाः, कल्पापकल्पकरणाकरणे समानाः ।। कुछ सरल स्वभावी एवं गतानुगतिक थे। कुछ बहुत अनुभवी होते हुए भी मौनावलम्बी एवं राग-द्वेष से परे होकर उपेक्षा दृष्टि वाले थे, और कुछ कल्प या अकल्प कुछ भी सेवन करे, हमें इससे कुछ भी लेना-देना नहीं, ऐसी भावना वाले भी थे।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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