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________________ १०८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् २५. सौधर्मकल्पाधिपतिर्गजेन्द्रमशानजेन्द्रो वृषभाधिराजम् । ___ अहंन् यथा दैविकयाप्ययानं, यानं तथा तत् समलङ्करोद् यः॥ तब आपने उस वाहन को वैसे ही अलंकृत किया जैसे सौधर्मेन्द्र ऐरावण हाथी को, ईशानेन्द्र वृषभ को तथा तीर्थंकर देव-निर्मित शिबिका को अलंकृत करते हैं। २६. कल्याणतूर्याणि जनैः प्रमोदात्, सन्ताडितान्येकविधाभिरत्र । आपूरयन् सर्वकाग्निकुञ्जान्, यत्पुष्करावर्तकगर्जनावत् ॥ तब हर्ष विभोर होकर जनता ने अनेक मंगलमय वाद्य बजाए । उनके सुमधुर नाद से सारे दिनिकुंज समानरूप से वैसे ही पूरित हो गए जैसे पुष्करावर्त मेघ के गंभीर घोष से पूरित होते हैं। २७. आनन्दभेरी पुरतः प्रणादः, शब्दाद्वितीये भुवने तदाप्ते। माङ्गल्यमालाभिरभीक्ष्यमाणो, हात् समारोहसमं प्रतस्थे । भिक्षु अपने स्थान से दीक्षास्थान की ओर समारोहपूर्वक प्रस्थित हुए । उस समय अनेक मांगलिक विधियां संपन्न हुई। आगे-आगे होने वाले शब्दों से प्रतीत हो रहा था कि मानो आनन्द की भेरी बज रही है और उससे सारा लोक शब्दाद्वैतमय बन गया है । २८. यानाधिरूढोऽतिशन शनैः स, श्रेण्या यदा संसरणे'ऽवतीर्णः। भूमिस्पृशस्तं परिलोक्य लोक्यमाश्चर्यसिन्धौ सुतरां निमग्नाः । वे यान पर आरूढ होकर धीरे-धीरे गलियों को पार करते हुए राजमार्ग पर आए। लोगों ने उन दर्शनीय भिक्षु को देखा और देखकर आश्चर्य सिन्धु में डूब गए। २९. हल्लेखतः केचन चारुरङ्गाचार्यन्ति घण्टापर्थ चत्वरादी। चित्रीयमाणा अपि केऽपि केऽपि, देवायमाना इव निनिमेषाः ॥ १. याप्ययानम्-शिबिका (शिबिका याप्ययाने...-अभि० ३१४२२) २. श्रेणी-वीथी। ३. संसरणं-राजमार्ग (घण्टापथः संसरणं-अभि० ४।५३) ४. हल्लेखः-उत्सुकता (औत्सुक्यं ""हल्लेखोत्कलिके-अभि० २।२२८). ५. घण्टापथः-राजमार्ग (अभि० ४।५३) ६. चत्वरम्-बहुत मार्गों के मिलने का स्थान (बहुमार्गी तु चत्वरम् अभि० ४१५४)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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