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________________ चतुर्थः सर्गः १. श्रेयानथ न्युञ्छित सूरिपार्वे, ज्योतिविदा दत्तवलक्षलग्ने । दीक्षां समादातुमयं प्रवृत्त, आनन्दवृन्दं परितस्तदानीम् ।। जब वह कल्याण-कामी भिक्षु अपने परखे हुए धर्माचार्य के पास किसी ज्योतिर्विद् द्वारा दिये गये शुभ लग्न में दीक्षा के लिए प्रस्तुत हुआ, तब चारों ओर आनन्द ही आनन्द छा गया। २. आचक्षते केचन मुक्तकण्ठा, भाग्योदयः कोऽपि महान् जनानाम् । यस्मादमूदृग भुवनेऽस्ति सज्ज, एको हि विश्वोद्धरणक्षमोऽयम् ॥ उस समय कई नागरिक मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए कहने लगे'यह मानवमात्र का महान् भाग्योदय है कि ऐसा व्यक्ति दीक्षा लेने के लिए तत्पर हुआ है । यह अकेला ही विश्व का उद्धार करने में समर्थ है। ३. अभ्युद्यतं लोकहितं यमैक्ष्य, ये मानुषास्ते मुखरीबभूवः । तृष्णादिता ग्रीष्मविदिताः किं, कालापिका' नैव नदन्ति मेघात् ।। लोकहित के पर्याय भिक्षु को दीक्षा के लिए उद्यत देखकर वे नागरिक वाचाल हो उठे। क्या ग्रीष्म ऋतु के निदाघ से पीडित और तृषा से व्याकुल मयूर मेघ को देखकर वाचाल नहीं हो जाते ? ४. आह्लादिता हादिकहृद्यरागैराऽऽगाममाऽऽगाम'मनाह्वयस्थाः । सभ्या इवाऽन्ये क्रमतः क्रमज्ञाः, प्रक्राम्यमाणाश्चरणक्षणार्थम् ।। विधि-विधानों से परिचित वहां के नागरिक बिना निमंत्रण ही हार्दिक अनुराग के साथ आह्लादित होकर, आ-आकर शिष्टता पूर्वक दीक्षा महोत्सव की विधियों को क्रमशः संपन्न करने लगे। ५. केचित् सुगनधाम्बुभृतार्यकुम्भैर्दीक्षोत्सवाहप्रवराभिषेकम् । उच्चोत्तमस्नानिकविष्टरस्य', चक्रुः सुरास्तीर्थपतेरिवाऽस्य ।। १. कालापिकः-मयूर । २. आगामं आग़ाम-आभीक्ष्ण्येऽर्थे णप्रत्ययस्य रूपमिदम् । ३. क्षण:- उत्सव (महः क्षणोद्धवोद्धर्षा–अभि० ६१४४) ४. विष्टर:-पीढा, चौकी (विष्टरः पीठमासनम्-अभि० ३।३४८)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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