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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'अरे वत्स ! अपनी उदार वृत्ति से कल्पवृक्ष को जीतने वाले, संकोचशील तथा स्वाभिमानी तुम घर-घर में भिक्षा कैसे मांग सकोगे ? यह अत्यन्त आश्चर्यकारी प्रतीत होता है।' ८७. विसप्रसूना स्यमवेक्ष्य लुब्धाऽऽगतालिमालमालाचिकुरावलीनाम् । सुदारुणं लुञ्चनमात्मवेद्यं, करिष्यसि त्वं कथमेव वत्स ! 'वत्स ! कमल के समान तुम्हारे मुख को देखकर, भ्रमरों की तरह मुग्ध बन कर आये हुए इन कोमल केशों का स्वसंवेद्य दारुण लुञ्चन तुम कैसे कर पाओगे ?' ५८. गृहादिबाह्यं द्रविणं सुहेयं, भुजङ्गनिर्मोकवदत्र किन्तु । यशःप्रशंसादिकमन्तरीयं, विषाक्तशल्यं ननु दुष्प्रहेयम् ।। _ 'वत्स ! सर्प की केंचुली की तरह गृह आदि बाह्य धन को छोडना सरल है किन्तु यश-प्रशंसा आदि आन्तरिक विषाक्त शल्यों को छोडना बहुत कठिन है।' ८९. अणुव्रतान्येव ततो गृहस्थः, प्रपालय त्वं शिवतातिरेव'। मनुष्व वाणी हितभितां मे, रसायनं सज्जनशिक्षणं यत् ।। 'वत्स ! गृहवास में रहते हुए तुम अणुव्रतों का पालन करो, इसी से कल्याण हो जाएगा। देखो, सज्जनों की शिक्षा रसायन तुल्य होती है । अतः तुम मेरी हितकारी बात को मानो।' ९०. दिशां मुखाम्भोजति स्वदन्तमरीचिमालाकुलितां वितन्वन् । तदुत्तरं स्पष्टतरं ददाति, स्वलक्ष्यमारुह्य ततोऽतिचारुम् ।। माता के मुख से संयम की कठिनाइयों को सुन, अपनी दन्त-किरणों के समूह से दिग्-मुख-मंडल को आलोकित करते हुए, अपने लक्ष्य में स्थित दीपां-पुत्र (भीखन) अपनी मां को उसके प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर देने लगे। ९१. किलैककुक्ष्याऽऽयसिमण्डलाग्ने, नटा नटन्ति स्वजनः प्रणुन्नाः। सनातनैश्वर्यममीप्सुरेवं, नटन्नहं तत्र त्वया न वार्यः॥ १. विसप्रसून-कमल (अभि० ४।२२७) २. शिवताति:-मंगलकारी (शिवतातिः शिवंकर:-अभि० ३।१५३) ३. मण्डलान:-तलवार (तरवारिकौशेयकमण्डलाग्रा:-अभि० ३।४४६)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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