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________________ आशीर्वचन तेरापन्थ धर्मसंघ में साहित्य की स्रोतस्विनी अनेक धाराओं में प्रवहमान रही है। राजस्थानी भाषा में साहित्य-सृजन की परम्परा आचार्य भिक्षु के समय से ही बहुत समृद्ध रही है। हिन्दी साहित्य का सृजन भी प्रगति पर है । संस्कृत साहित्य की धारा सूखी नहीं है। गद्य और पद्यदोनों विधाओं में साहित्य लिखा गया है, पर वह सीमित है। प्राकृत भाषा हमारे यहां अध्ययन-स्वाध्याय की दृष्टि से प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकृत है। किन्तु इसमें बोलने और लिखने की गति बहुत मन्द रही है। सन् १९५४ के बम्बई प्रवास में विदेशी विद्वान् डा० ब्राउन मिलने आए। उस दिन संस्कृत गोष्ठी में अनेक साधु-साध्वियों के वक्तव्य हुए। डा० ब्राउन ने कहा --- 'मैंने अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत में भाषण सुने हैं। मैं प्राकृत भाषा में सुनना चाहता हूं।' उसी समय मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) ने प्राकृत में धाराप्रवाह भाषण दिया। डा० ब्राउन को बहुत प्रसन्नता हुई। वे बोले-'आज मेरा चिरपालित सपना साकार हो गया।' एक विदेशी विद्वान् की प्राकृत में इतनी अभिरूचि देख मैंने साधु-साध्वियों को इस क्षेत्र में गति करने की प्रेरणा दी। प्रेरणा का असर हुआ । अनेक साधु-साध्वियों ने प्राकृत में विकास करना प्रारम्भ कर दिया। प्राकृत भाषा पढ़ना एक बात है, उसमें लिखना सरल काम नहीं है। पद्य लिखना तो और भी कठिन है । शिष्य मुनि विमल ने संस्कृत के साथ प्राकृत का भी अच्छा अध्ययन किया है। मुनि विमल में अध्ययन-मनन की रुचि है, लग्न है, ग्राह्यबुद्धि है। पूरे श्रम से हर एक कार्य करता है। इसी का परिणाम है यह कृति 'पाइयपडिबिंबो' । 'पाइयपडिबिंबो' में उसकी ललियंगचरियं आदि तीन पद्यात्मक कृतियों का संग्रह है। प्रस्तुत कृति की रचनाओं में साहित्यिक लालित्य कम हो सकता है, पर प्राकृत सीखने वाले विद्यार्थियों और प्राकृतरसिक पाठकों के लिए इसकी उपयोगिता निर्विवाद है । मुनि विमल इस दिशा में अधिक गति करे और अपनी साहित्यिक प्रतिभा को निखारे, यही शुभाशंसा है । जैन विश्व भारती गणाधिपति तुलसी लाडनूं (राजस्थान) १३ अप्रैल १९९६
SR No.006276
Book TitlePaia Padibimbo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages170
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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