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________________ बारह . दूसरा आख्यान भाग है पएसीचरियं । यह काव्य चार सर्ग में समाप्त हुआ है । इसका भी मूल प्राकृत और हिन्दी अनुवाद मुनिश्री ने किया है। बंकचूलचरियं की तरह इसकी भी पादटीका में प्राकृत सूत्र का उल्लेख कर पदसाधन किया है । यह कथा काव्य भी जैन कथा काव्य में प्रसिद्ध है । पाइयपच्चूसो का अन्तिम भाग है मियापुत्तचरियं। यह भी तीन सर्ग में समाप्त हुआ है। इसमें मूल काव्य प्राकृत भाषा में है। इसका भी हिन्दी अनुवाद हुआ है। मियापुत्तचरियं आगम साहित्य में अति प्रसिद्ध है, परन्तु मुनिश्री ने इसकी रचना शैली ऐसी बनाई है कि यह नया काव्य बन गया है । कहानी में नाम सादृश्य है लेकिन रचना में कलाकौशल अलग है। इसलिए विमलकुमारजी का 'मियापुत्तचरियं' एक अपूर्व काव्य है। द्वितीय काव्य ग्रन्थ 'पाइयपडिबिंबो' में भी तीन आख्यान हैं। यथाललियंगचरियं, देवदत्ताचरियं और सुबाहुचरियं । ये तीनों आख्यान भाग भी जैन साहित्य में प्रसिद्ध हैं। नाम सादृश्य से ऐसा प्रतीत होना नहीं चाहिए कि विमलमुनि का अपूर्व कलाकौशल इसमें उपलब्ध नहीं होता परन्तु पुराने आख्यायिका से आख्यान भाग लेने पर भी इनमें कलाकौशल, वर्णन-माधुर्य, शब्द चयन और वचन ऐसा पांडित्यपूर्ण है कि पुराने काव्य ग्रन्थ से भी इनकी रचना अधिक मधुरिमा युक्त है । ललियंगचरियं चार पर्व में समाप्त है। मूल के साथ इसका भी हिन्दी अनुवाद किया गया है। वैसे देवदत्ता चरियं भी पांच सर्ग में हिन्दी अनुवाद के साथ लिपिबद्ध है। सुबाहुचरियं तीन पर्व में समाप्त है । इसका भी हिन्दी अनुवाद है। इन तीनों प्राकृत काव्यों में पाइयपच्चूसो की तरह टिप्पणी में प्राकृत सूत्रों का उल्लेख पूर्वक पदसाधन किया गबा है । मेरी ऐसी आशा है कि इन दो काव्य ग्रन्थों में जो छह आख्यान भाग हैं वह प्राकृत भाषा सीखने के लिए बहुत उपयोगी होगा। इसका कारण यही है कि मुनिश्री की भाषा सरल, स्निग्ध और मधुर है। कठिन शब्दों से परिपूर्ण नहीं है और ज्यादा से ज्यादा समासबद्ध शब्द भी नहीं है । यद्यपि यह आधुनिककालीन रचना है तथापि पढने पर मालूम होता है कि ये पुराने जमाने की रचना है । कवित्वशक्ति मुनिश्री में बहुत है । बीच-बीच में प्रवचन की तरह काफी सूक्तियों का प्रयोग किया गया है । बीसवीं शताब्दी में प्राकृत भाषा में ऐसा एक महत्त्वपूर्ण आख्यान काव्य लिखना बहुत ही कठिन है । विमलमुनि ने इस वस्तु को सरल कर दिया है । इनकी एक काव्यदृष्टि है। पढने पर मालूम होता है कि इसका जो छन्द है उसमें काफी लालित्य है। चरित्रचित्रण में इनकी
SR No.006276
Book TitlePaia Padibimbo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages170
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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