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________________ 285 की लेखनी नहीं उलझी है, प्रस्तुत कवियों की रचनाधर्मिता, जीवन के उच्चादर्शों और मूल्यों पर आधारित है । जैन परम्परा और जैनेतर परम्परा में जन्में रचनाकारों ने समान रूप से जैन काव्यों रचना के प्रमुख आधार द्वादशाङ्ग वाणी को आत्मसात करके संस्कृत में काव्यों प्रणयन किया है। विवेच्य शताब्दी के जैन काव्यों की रचनाधर्मिता और रचनाकारों के आश्रय - पार्थक्य को रेखांकित करते हुए विवेचन किया है । परन्तु प्रस्तुत शताब्दी में जैन साधुसाध्वियों और जैन गृहस्थ मनीषियों के साहित्य पर समान रुप से आध्यात्म, भारतीय संस्कृति, दार्शनिक चिन्तन, न्याय, सदाचार, विश्वशान्ति, नैतिकता और कैवल्य (मोक्ष) का प्रभाव अङ्क है । बीसवीं शताब्दी के अग्रगण्य महात्मा आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज के काव्यों में मानवता, वर्णव्यवस्था, स्वावलम्बन पुनर्जन्म आदि भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का समग्रतया उद्घाटन हुआ है । सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए आत्मचिन्तन का आश्रय लेना उचित है। श्री समुद्र दत्त" का नायक सत्यप्रियता के कारण प्रख्यात हुआ । " दयोदय- चम्पू" में एक हिंसक के हृदय परिवर्तन की कहानी है । " जयोदय" का नायक राजा होकर भी अन्त में ब्रह्मचर्य व्रत धारण करता है । "वीरोदय और "सुदर्शनोदय" आदि ग्रन्थ रत्नत्रय की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं आचार्य विद्यासागर महाराज का रचना संसार आध्यात्मिकता, दार्शनिक चिंतन परब्रह्म परमात्मा पर आधारित है । लाक्षणिक प्रयोगों में गूढार्थ है। जहाँ एक और साधारण मनुष्य की बुद्धि से परे " भावना शतकम् " ग्रन्थ को " कोशं पश्यन् पदे पदे " की सहायता से ही प्रबुद्ध व्यक्ति समझ सकता है वहीं दूसरी और "सुनीतिशतकम्" जैसे ग्रन्थों की प्रतिपाद्य शैली सरल है । " मुक्ति मार्ग" की सार्थकता समझायी गई है । चित्रालङ्कारों में मुरजबंध को अपनाया है । चरित्रशुद्धि, आत्मोत्थान का सम्यक् निदर्शन पदे पदे किया है । आचार्य कुन्थुसागर की रचनाओं में नैतिक उत्थान, जन जागृति और बौद्धिक विकास के साथ ही पापाचार की विकरालता से मानव मात्र को अवगत कराते हुए इससे दूर रहने का उपदेश दिया है । इनके ग्रन्थों में जीवन के आदर्श सिद्धान्तों एवं मोक्ष के रहस्य को समझाया गया है । शांति सुधा-सिन्धु, श्रावकधर्मप्रदीप, सुवर्णसूत्रम्, आदि ग्रन्थों में विश्व शांति की व्याख्या की गई है और स्पष्ट किया है कि विश्वशान्ति ही अतीत, वर्तमान एवं भविष्य विषयक सभी समस्याओं का समाधान खोजने में सक्षम है। आचार्य श्री के काव्यों में कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, सत्सङ्गति, समाजसुधार, जैन संस्कृत और जैनधर्म का बीसवीं शताब्दी में महत्तव आदि का सम्यक् निदर्शन है । समस्या प्रधान विश्व संस्कृति के उत्थान में आचार्य कुन्थुसागर जी के ग्रन्थों का अध्ययन मानव मूल्यों के रक्षार्थ उपयोगी है । पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी, आर्यिका ज्ञानमती माता जी, आर्यिका विशुद्धमती माता जी, आर्यिका जनमती माता जी प्रभृति साध्वियों की रचनाओं में भी उपयोगी सिद्धान्तों की समीक्षा की गई है । डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य जी की रचनाओं का प्रतिपाद्य विषय सम्यक् रत्नत्रय है। जैनदर्शन के आधारभूत एवं मोक्षमार्ग की प्रतिपादक इनकी रचनाएँ दार्शनिक चिन्तन की प्रतिनिधि हैं। इनमें भावपक्ष के साथ-साथ कलापक्ष की प्रधानता समान रूप से निदर्शित है । इनके
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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