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________________ 131 यदि मनुष्य स्वर्ग सुख को चाहता है तो जिनेन्द्र देव की आराधना कर जिनेन्द्र वाणी का आश्रय ले सुगुरू को नमस्कार करें का निर्देश देकर इस अध्याय का समारोप किया है। देश चारित्राधिकार नामक द्वादश प्रकाश के आरम्भ में भगवान् महावीर को प्रणाम किया है । जो व्यक्ति संसार और शरीर से उदासीन है, सम्यग्दर्शन से सुशोभित है और हिंसादि से विरक्त होते हैं उन्हें ही 'देश चारित्र' प्राप्त होता है । देश चारित्र प्राप्ति के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सहायक होते हैं । इनका विवेचन पद्य क्र. 6-38 तक किया है । व्रतों की निर्मलता चाहने वाले पुरुष सत्तर अतिचारों का त्याग कर कर्मक्षय करने का प्रयत्न करते हैं । शंका भोगादि सत्तर अतिचारों का वर्णन पद्य क्र . 39 से 76 तक मिलता है । जिन पूजा सब संकटों को नष्ट करने वाली होती है, इसलिए श्रावकों को प्रतिदिन अत्यन्त श्रेष्ठ अष्टं द्रव्यों से जिनपूजा करनी चाहिए। व्रतों मनुष्यों को अपने द्रव्य से हमेशा भक्तिपूर्वक जिनवाणी का प्रसार करना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण नामक चारित्र मोह के क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय की हीनाधिकता से श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं में प्रवृत्त होता है । ग्यारह प्रतिमाओं के स्वरूप का विवेचन पद्य क्र. 94-120 तक वर्णित है । जैनधर्म सभी जीवों का हितकर्त्ता है इसलिए गृहस्थ और मुनिगण इच्छानुसार चारित्रधारण कर दुःख से निवृत्त होकर उत्तम सुख प्राप्त करे । इसी कामना के साथ इस अध्याय का समारोप किया है । 1 त्रयोदश प्रकाश का अपर नाम संयमासंयमलब्धि अधिकार है । इस प्रकाश के प्रारम्भ में संसारसागर में निमग्न जीवसमूहों का उद्धार करने के इच्छुक सदगुरूओं को नमस्कार किया है । संसार में संयमासंयम को देश चारित्र कहते हैं । त्रस हिंसा से निवृत्त होने के कारण संयम और स्थावर हिंसा के विद्यमान रहने से असंयम कहा जाता है। चारित्रलब्धि और देश चारित्र लब्धिओं को पाने के लिए प्रतिबन्धक कर्मों की उपशामना विधि होती है । इसके चार भेद हैं - प्रकृति उपशामना, स्थिति उपशामना, अनुभाग उपशामना और प्रदेश उपशामना । इन भेदों का विशद विवेचन 13 से 27 तक वर्णित है । संयतासंयत जीव पञ्चम गुण स्थानवर्ती कहे जाते हैं। देशचारित्र के धारक मनुष्य या तिर्यञ्च सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होकर अढ़ाई द्वीपों में निवास करते हैं । T इन्द्रिय विजय का उपदेश देते हुए इस प्रकरण को समारोप किया है । "धर्मकुसुमोद्यान " धर्मकुसुमोद्यान 35 ग्रन्थ बीसवीं शती के पश्चात साहित्यकार डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य की रचना है । जैनदर्शन, संस्कृति, सदाचार, पाण्डित्य के धनी डा. साहब ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है । नामकरण प्रस्तुत कृति का नाम 'धर्मकुसुमोद्यान' सर्वथा उपयुक्त है । क्योंकि इसमें धर्म का कुसुम पुष्पित और पल्लवित हुआ है । इसे 'दशलक्षण धर्म - सङ्ग्रह' भी कहते है । इसमें धर्म के अभिन्न दश लक्षणों पर कवि की मार्मिक अनुभूति अभिव्यंजित है । आकार इस रचना 109 पद्यों से सम्गुफित एक नीतिविषयक लघुकाव्य ही हैं । विषयवस्तु – प्रस्तुत कृति में धर्म का लक्षण एवं उसके 10 भेदों पर विचार किया गया है । -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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