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________________ ऐसा प्रतीत होता है कि अजित का दर्शन और धर्म (नैतिकता) बौद्ध दर्शन एवं धर्म की पूर्व कड़ी थी । बौद्धों ने उसके दर्शन की जो आलोचना अथवा नैतिक निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे कि उसके अनुसार दुष्कृत एवं सुकृत कर्मों का विपाक नहीं, यही आलोचना पश्चात काल में बौद्ध आत्मवाद को कृत प्रणाश एवं अकृत कर्मभोग कहकर-हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत की । अनित्य- आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती क्योंकि उसके आधार पर कर्म विपाक या कर्म-फल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता क्योंकि समस्त शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल तत्काल प्राप्त नहीं होता । अतः कर्म-फल की धारणा के लिये नित्य आत्मवाद की ओर आना होता है । दूसरे अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्य संचय, परोपकार एवं दान आदि के नैतिक आदेशों का भी कोई अर्थ नहीं रहता । नित्य कूटस्थ आत्मवाद वर्तमान् दार्शनिक परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ (निष्क्रिय) एवं नित्य है, सांख्य और वेदान्त इसी का समर्थक है । जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है । अतः हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य आत्मवाद और कूटस्थ आत्मवाद दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थ नित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्ण कश्यप थे। पूर्ण कश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध - साहित्य में इस प्रकार है अगर कोई क्रिया करे कराये, काटे कटवाये, कष्ट दे या दिलाये.... चोरी करे .... प्राणियों को मार डाले.... परदारा गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं । तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के मांस का ढेर लगा दे तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है.... दान, धर्म और सत्य - भाषण से कोई पुण्य-प्राप्ति नहीं होती । इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है इस प्रकार का उपदेश देने वाला व्यक्ति कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोई धूर्त होगा। लेकिन पूर्ण कश्यप एक लोक पूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता । यह उनके आत्मवाद का नैतिक फलित होगा जो एक विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है । फिर भी इसमें इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्ण कश्यप आत्मा को अक्रिय मानते थे, वस्तुतः उनकी आत्म-अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। जैन तत्त्वदर्शन 79
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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