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________________ और “अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' कहकर गृही जीवन के दायित्वों को निर्वाह करने हेतु बल दिया गया। जबकि प्रारम्भिक श्रमण परम्पराओं में गृहस्थ जीवन की निन्दा की गयी और संन्यास को ही निर्वाण या मुक्ति का एक मात्र उपाय माना गया। प्रारम्भिक जैन एवं बौद्धधर्म गृहस्थ जीवन की निन्दा करते हैं। जैन आगम दशवैकालिकसूत्र (चूलिका 1/11-13) में कहा गया है कि गृहस्थ जीवन क्लेश युक्त है और संन्यास क्लेश मुक्त; गृहस्थ जीवन पापकारी है और संन्यास निष्पाप है। इसी प्रकार सुत्तनिपात (27/2) में भी संन्यास जीवन की प्रशंसा तथा गृहस्थ की निन्दा करते हुए कहा गया है कि गृहस्थ जीवन कण्टकों से पूर्ण वासनाओं का घर है जबकि प्रव्रज्या खुले आसमान के समान निर्मल है। जैन एवं बौद्ध-दोनों ही धर्मों के प्राचीन ग्रन्थों से हमें ऐसा कोई उल्लेख देखने को नहीं मिला, जिसमें गृहस्थ जीवन की प्रशंसा की गयी हो। जैन आगम उपासकदशांग में दश गृहस्थ उपासकों का जीवन वृतान्त वर्णित है, किन्तु उनको केवल स्वर्गवासी बताया गया है, मोक्षगामी नहीं। इसी प्रकार पिटक साहित्य में बुद्ध स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि गृहस्थ जीवनं को छोड़े बिना निर्वाण सम्भव नहीं, किन्तु इसके विपरीत हम यह देखते हैं कि महायान परम्परा और जैनों की श्वेताम्बर परम्परा तथा भगवद्गीता स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि निर्वाण या मुक्ति के लिए गृही जीवन का त्याग अनिवार्य नहीं है। महायान साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ साधक गृहस्थ जीवन से सीधा ही मुक्ति लाभ प्राप्त करता है। इसी प्रकार गीता मुक्ति के लिए संन्यास को आवश्यक नहीं मानती। उसके अनुसार गृहस्थ भी मुक्ति का अधिकारी है। महायान, श्वेताम्बर जैन परम्परा और भगवद्गीता में किसके प्रभाव से यह अवधारणा विकसित हुई यह बता पाना तो कठिन है लेकिन इतना स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तन में ईसा की प्रथम शताब्दी में जो प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच अथवा संन्यास एवं गृही जीवन के बीच जो समन्वयात्मक प्रवृत्ति विकसित हुई थी, यह इसका ही परिणाम था। इन तीनों परम्पराओं में यह स्वीकार कर लिया गया है कि निर्वाण के लिए संन्यास अनिवार्य तत्त्व नहीं है। मुक्ति का अनिवार्य तत्त्व हैअनासक्त, निष्काम, वीततृष्ण और वीतराग जीवन दृष्टि का विकास। फिर भी इतना अवश्य मानना होगा कि यह श्रमण परम्परा पर वैदिक धारा का प्रभाव ही था, जिसके कारण उसमें गृहस्थ जीवन को भी कुछ सीमाओं के साथ अपना महत्त्व एवं स्थान प्राप्त हुआ। फिर भी जहाँ महायान और जैन परम्परा में भिक्षु संघ की श्रेष्ठता मान्य रही, वहाँ गीता में “कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते" कहकर गृही जीवन की श्रेष्ठता को मान्य किया गया। बौद्ध धर्मदर्शन 631
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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