SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्य गुण और पयार्यों के उपयुक्त वर्गीकरण के पश्चात् इन षट्द्रव्यों के स्वरूप और लक्षण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। इन षद्रव्यों में पाँच- द्रव्य अस्तिकाय भी कहे जाते हैं । इन पंच अस्तिकायों में काल को मिलाकर षट्द्रव्य माने गये हैं। अब हम इन षट् द्रव्यों को पृथक्-पृथक् रूप से चर्चा करेंगे । जीव द्रव्य जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है । जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है । इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है । उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा ही आगमों में मिलती है- निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहा जाता है । निराकार उपयोग को वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण दर्शन कहा जाता है और साकार उपयोग को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण ज्ञान कहा जाता है । जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है । उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है । इस प्रकार संक्षेप में जीवतन्त्र अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य वाला है 1 धर्म द्रव्य धर्म द्रव्य की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ वह नहीं है जिसे सामान्यतया ग्रहण किया जाता है । यहाँ 'धर्म' शब्द न तो स्वभाव का वाचक है, न कर्त्तव्य का और न साधना या उपासना के विशेष प्रकार का, अपितु इसे जीव एवं पुद्गल की गति के सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। जो जीव और पुद्गल की गति के माध्यम का कार्य करता है, उसे धर्म द्रव्य कहा जाता है । जिस प्रकार मछली की गति जल के माध्यम से ही सम्भव होती है अथवा जैसे -विद्युत धारा उसके चालक द्रव्य के तार आदि के माध्यम से ही प्रवाहित होती है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल विश्व में प्रसारित धर्म द्रव्य के माध्यम से ही गति करते हैं । इसका प्रसार क्षेत्र लोक तक सीमित है। अलोक में धर्म द्रव्य का अभाव है । इसीलिए उसमें जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं होती और यही कारण है कि उसे अलोक कहा जाता है । अलोक का तात्पर्य है कि जिसमें जीव और पुद्गल का अभाव हो । धर्म द्रव्य प्रसारित स्वभाव वाला (अस्तिकाय) होकर भी अमूर्त ( अरूपी) और अचेतन है । धर्म द्रव्य एक और अखण्ड द्रव्य है । जहाँ जीवात्माएँ अनेक मानी गई हैं, वहीं धर्म द्रव्य एक ही है | लोक तक सीमित होने के कारण इसे अनन्त प्रदेशी न कहकर असंख्य जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 46
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy