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________________ जैनियों या अन्य श्रमण परम्पराओं से ग्रहण किया अथवा जैनियों और अन्य श्रमण परम्पराओं में इनको पतंजलि से ग्रहण किया । मेरे विचार से दोनों ने इन्हें भारत की प्राचीन श्रमण से ग्रहण किया जिसकी ये शाखाएँ हैं । तृतीय और चतुर्थ काल के सम्बन्ध में हम केवल यह कह सकते हैं कि इन कालों में जैनियों ने जैनयोग और ध्यान सम्बन्धी अनेक कर्मकांडपरक पद्धतियाँ हिन्दू और बौद्ध तान्त्रिक साधनाओं से ग्रहण की, इन दोनों कालों में जैनयोग और ध्यान पर अन्य पद्धतियों का प्रभाव सरलता से देखा जा सकता है । वर्तमान समय में जैनयोग और ध्यान साधना पुनः जीवित हो गई है और सामान्यतः जैन लोगों में उसके प्रति सजगता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि जैनयोग और ध्यान की वर्तमान पद्धतियों का विकास पूरी तरह विपश्यना और पतंजलि के अष्टांग योग की साधना के साथ कुछ आधुनिक मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक अध्ययनों के आधार पर हुआ है । अंत में अपने इस आलेख का समापन आचार्य अमितगति के “सामायिक-पाठ” के एक सुन्दर उद्धरण के साथ करना चाहूँगा सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम् क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् मध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा समात्मा विवदातु देव ।। हे भगवान! मैं संसार के सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखूँ और गुणीजनों से मिलने पर प्रसन्नता का अनुभव करूँ । जो अत्यन्त दुःखी अवस्था में हैं, उनका सदा सहायक बनूँ और अपने विरोधियों के प्रति सहनशील रहूँ । जैन धर्मदर्शन - 471
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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