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________________ अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार करा देती है । जैन कवि बनारसीदासजी कहते हैं- जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा ऊर्ध्वमुखी होता है, आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे इस संसार में भौतिक-समृद्धि और सुख मिलता है वही पुण्य है" । जैन तत्व ज्ञान के अनुसार पुण्य कर्म वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं पुण्य कहलाती हैं साथ ही दूसरी और वे पुद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं पुण्य कहे जाते हैं । शुभ मनोवृत्तियां भाव पुण्य हैं और शुभ पुद्गल परमाणु द्रव्य पुण्य हैं। पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण - भगवती सूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण माना है" । स्थानांग सूत्र में नव प्रकार के पुण्य बताए गए हैं" : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. अन्न पुण्य : भोजनादि देकर क्षुधार्त्त की क्षुधा निवृत्ति करना । पान पुण्य : तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी मिलना । लयन पुण्य : निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ आदि बनवाना । शयन पुण्य : शय्या, बिछौना आदि देना । वस्त्र पुण्य : वस्त्र का दान देना मन पुण्य : मन से शुभ विचार करना । जगत के मंगल की शुभ कामना करना । वचन पुण्य : प्रशस्त एवं संतोष देने वाली वाणी का प्रयोग करना । काय पुण्य : रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना । नमस्कार पुण्य ः गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिये उनका अभिवादन करना । बौद्ध आचार दर्शन में भी पुण्य के इस दानात्मक स्वरूप की चर्चा मिलतीं है। संयुक्त निकाय में कहा गया है - अन्न, पान, वस्त्र, शैय्या, आसन एवं चादर के दानी पुरूष में पुण्यकी धाराएँ आ गिरती है । अभिधम्मत्थसंगहो में 1. श्रद्धा, 2. अप्रमत्तता (स्मृति), 3. पाप कर्म के प्रति लज्जा, 4. पाप कर्म के प्रति भय, 5. अलोभ (त्याग), 6. अद्वेषमैत्री, 7. समभाव, 8-9 . मन और शरीर की प्रसन्नता, 10-11. मन और शरीर की मृदुता, 13-14 मन और शरीर की सरलता आदि को भी कुशल चैतसिक कहा गया है " । जैन धर्मदर्शन 401
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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