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________________ तीसरा विकल्प अर्थात् विशेष्यपद विशेष्य को उभय से अन्वित कहता है, यह मानने पर उभयपक्ष के दोष आवेंगे अर्थात् न तो विशिष्ट वाक्यार्थ का बोध होगा और न निश्चयात्मक ज्ञान होगा। इसी प्रकार की आपत्तियाँ विशेष्य को क्रियापद और क्रियाविशेषण से अन्वित मानने के सम्बन्ध में भी उपस्थित होंगी। पुनः पूर्वपक्ष के रूप में मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि पद से पद के अर्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है और फिर वह वाक्यार्थ का निश्चय करता है, किन्तु ऐसा मानने पर तो रूपादि के ज्ञान से गंधादि का निश्चय भी मानना होगा, जो कि तर्क संगत नहीं माना जा सकता जा है। अतः अन्वित अभिधानवाद अर्थात् पदों से पदान्तरों के अर्थों से अन्वित अर्थों का ही कथन होता है पदों के अर्थ की प्रतीति से वाक्य के अर्थ की प्रतीति होती है- ऐसा प्रभाकर का मत श्रेयष्कर नहीं है। वस्तुतः अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद दोनों ही एकांगी हैं। जैन दार्शनिक अभिहितान्वयवाद की इस अवधारणा से सहमत है कि पदों का शब्द के रूप में वाक्य से स्वतन्त्र अर्थ भी होता है, किन्तु साथ ही वे अन्विताभिधानवाद से सहमत होकर यह भी मानते हैं कि वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद अपने अर्थबोध के लिए परस्पर सापेक्ष होता है अर्थात् वे परस्पर अन्वित (सम्बन्धित) होते हैं और सम्पूर्ण वाक्य के श्रवण के पश्चात् उससे हमें जो अर्थबोध होता है उसमें पद परस्पर अन्वित या सापेक्ष ही प्रतीत होते हैं, निरपेक्ष नहीं है क्योंकि निरपेक्ष पदों से वाक्य की रचना ही नहीं होती है। जिस प्रकार शब्द के अर्थबोध के लिए वर्णों की सापेक्षता आवश्यक है उसी प्रकार वाक्य के अर्थबोध के लिए पदों की सापेक्षता/ सम्बन्धितता आवश्यक है। जैनाचार्यों के अनुसार परस्पर सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है। अतः वाक्यार्थ के बोध में पद सापेक्ष अर्थात् परस्परान्वित ही प्रतीत होते हैं। यद्यपि इस समग्र विवाद के मूल में दो भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ कार्य कर रही हैं। अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्य पद सापेक्ष है वे वाक्य में पदों की सत्ता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। जबकि अन्विताभिधानवाद में पदों का अर्थ वाक्य सापेक्ष है, वाक्य से स्वतन्त्र न तो पदों की कोई सत्ता ही है और न उसका कोई अर्थ ही है। वे पदों के अर्थ को वाक्य सापेक्ष मानते हैं। अभिहितान्वयवाद में पद, वाक्य की महत्त्वपूर्ण इकाई है जबकि अभिहितान्वयवाद में पद, वाक्य ही महत्त्वपूर्ण एवं समग्र इकाई है, पद गौण हैं यही दोनों का मुख्य अन्तर है जबकि जैन दार्शनिक दोनों को ही परस्पर सापेक्ष और वाक्यार्थ के बोध में आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार वे इन दोनों मतों में समन्वय स्थापित करते हैं और कहते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पद और वाक्य दोनों की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जैन ज्ञानदर्शन 275
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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