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________________ एवं अन्य तत्त्वों से निपरेक्ष होती है, इसके विपरीत विभाव पर्याय अन्य तत्त्व से सापेक्ष विभाव पर्याय होती है। आत्मा में ज्ञाता द्रष्टा भाव या ज्ञाता द्रष्टा की अवस्था स्वभाव पर्याय रूप होती है । क्रोधादिभाव विभाव पर्यायरूप होते है । परिवर्तनशील स्वभाव एवं विभाव पर्यायों को कथन व्यवहार नय होता है । जबकि सत्तारूप आत्मा के ज्ञाता द्रष्टा नायक गुण का कथन निश्चय नय से होता है । नैगम आदि सप्तनय यह वर्गीकरण अपेक्षाकृत एक परवर्ती घटक है । तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य मान्य पाठ में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्दनय ऐसे पाँच भेद किये गये हैं। ये पाँचों भेद दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम में भी उल्लेखित है । तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य मान्य पाठ में उसके पश्चात् नैगमनय के दो भेद और शब्दनय के दो भेद भी किये गये हैं। परवर्तीकाल में शब्द नय के इन दो भेदों को मूल पाठ में समाहित करके सर्वार्थ सिद्धि मान्य पाठ में नयों के नैगम आदि सप्त नयों की चर्चा भी की गई है। दिगम्बर परम्परा इस सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ को आधार मानकर इन सात नयों की ही चर्चा करता है। वर्तमान में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में इन सप्तनयों की चर्चा ही मुख्य रूप से मिलती है । इन सात नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चार नयों को अर्थनय अर्थात् वस्तु स्वरूप का विवेचन करने वाले और शब्द समभिरूढ़ और एवं भूत इन तीन नयों को शब्दनय अर्थात् वाच्य के अर्थ का विश्लेषण करने वाले कहा गया है । अर्थनय का संबंध वाच्य - विषय (वस्तु) से होता है । अतः ये नय अपने वाच्य विषय की चर्चा सामान्य और विशेष इन पक्षों के आधार पर करते हैं । जबकि शब्दनय का संबंध वाच्यार्थ (Meaning) से होता है । आगे हम इन नैगम आदि सप्तनयों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। नैगमनय इन सप्त नयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है । नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है । नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है जिसे वक्ता वह बताना चाहता है। नैगमनय सम्बन्धी प्रकथनों में वक्ता की दृष्टि सम्पादित की जाने वाली क्रिया के अन्तिम साध्य की और होती है । वह कर्म के तात्कालिक पक्ष पर ध्यान न देकर कर्म के प्रयोजन की और ध्यान देती है। प्राचीन आचार्यो ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति स्तम्भ के लिए किसी जंगल से लकड़ी लेने जाता है और उससे जब पूछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो? तो वह कहता है मैं स्तम्भ लेने जा रहा हूँ । वस्तुतः वह जंगल से स्तम्भ जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 206
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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